‘रक्षाबंधन बंधन का नहीं मुक्ति का पर्व’
राष्ट्रसंत विरागसागर के प्रवचन
‘रक्षाबंधन बंधन का नहीं मुक्ति का पर्व’
कोलकाता. रक्षाबंधन बंधन का नहीं मुक्ति का पर्व है। मात्र धागे से नहीं हृदय से जुडऩे का पर्व है। विघटन का नहीं वात्सल्य का पर्व है। बलि जैसे उपसर्ग कर्ताओं का नहीं उपसर्ग हर्ताओं का पर्व है रक्षाबंधन। बेलगछिया में विराजमान राष्ट्रसंत विरागसागर महाराज ने प्रवचन में यह उद्गार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आज के दिन 2 महत्वपूूर्ण घटना घटी- प्रथम जैन शासन के 11वें तीर्थंकर भगवान श्रेयांशनाथ ने निश्रेयश पद प्राप्त किया था, जिसकी खुशी में हर मंदिर में निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है। दूसरी आज के दिन अकंपनाचार्य आदि 70 मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ था। 20वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ भगवान के शासनकाल में अकंपनाचार्य आदि 700 मुनियों का विशाल संघ धर्म प्रभावना एवं आत्मसाधना में तल्लीन था। यही संघ विहार करते हुए उज्जैनी नगरी में पहुंचा। वहाँ का राजा अत्यंत धार्मिक था, किंतु उसके मंत्री धर्मविहीन थे। जब राजा मुनिराज के दर्शनार्थ गया, उस वक्त गुुरु आज्ञा से वे सभी मुनि मौनपूर्वक ध्यानसाधना में तल्लीन थे। जिसे देख लौटते समय मंत्रियों ने राजा से मुनियों के विषय में अपशब्द कहे, जिन्हें रास्ते में नगर से आते हुए श्रुतसागर मुनिराज ने सुन लिया, उनसे संघ की निंदा बर्दास्त न हुई। उन्होंने शास्त्रार्थ कर मंत्रियों को निरुत्तर कर दिया। राजा के सामने अपना अपमान होने से मंत्रियों ने रात्रि में मुनिराज को तलवार से मारना चाहा, किंतु उसी वक्त वनदेवी ने उस दुष्ट मंत्रियों को कील दिया, जिससे वे पुतलीवत खड़े रह गये। सारे नगरवासियों में मंत्रियों के घृणित कार्य की चर्चा सुबह फैल गई। राजा ने भी उन चारों मंत्रियों को अपने राज्य से कालामुख कर निकाल दिया। अपमानित हो वे बलि, प्रहलाद, नमुचि, वृहस्पति चारों मंत्रियों ने हस्तिनापुर पहुंच वहां के नवीन राजा पदम जो कि अपने पिता एवं बड़े भाई विष्णु कुमार के दीक्षा लेने पर राज्यभार संभाल रहे थे, उन्हें प्रसन्न किया तथा उनसे सात दिन का राज्य वरदान में मांगा। राजा ने भी संतुष्ट हो उन्हें सात दिन का राज्य देने का वचन दिया। योगायोग वे ही अकंपनाचार्य आदि 700 मुनियों का संघ हस्तिनापुर आया। राजा को मुनि आगमन की खबर लगती उसके पूर्व ही प्रतिशोध की ज्वाला से झुलसते मंत्रियों ने राजा से सुरक्षित रखा हुआ अपने वरदान सात दिन का राज्य मांग लिया। राजा ने भी ज्यादा कुछ विचार किये बिना ही मंत्रियों को 7 दिन का राज्य दे दिया। धर्मद्रोही मंत्रियों ने आत्मसाधना में तल्लीन रहने वाले शांतचित्त 700 मुनिराज जहां ठहरे थे उसके चारों तरफ अग्नि जलाकर नरमेघ यज्ञ करवाना प्रारंभ किया। सभी जगह त्राहिमाम शब्द गूंज रहा था। उसी क्षण ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान सागरसेन आचार्य दूर किसी पर्वत पर ध्यान साधना में तल्लीन थे, अचानक उनकी दृष्टि श्रमण नक्षत्र पर पड़ी जो कि कंपायमान हो रहा था। नक्षत्र को कंपायमान देख उन्होंने जान लिया कि हस्तिनापुर में 700 मुनियों पर जोर उपसर्ग हो रहा है। उसी वक्त मौन खोल उन्होंने क्षुल्लक पुष्पदंत से सारी बात कही तथा उन्हें उपसर्ग दूर करने में समर्थ विष्णुकुमार मुनि के पास भेजा जिन्हें कि तपस्या के प्रभाव से विक्रिया ऋद्धि-सिद्ध हुई थी। क्षुल्लकश्री पुष्पदंत विद्यावल से तत्क्षण विष्णुकुमार मुनिराज के पास पहुंचे और उन्हें उपसर्ग की घटना से अवगत कराते हुए कहा कि आप ही इसे दूर करने में समर्थ हैं। विष्णुकुमार मुनिराज विक्रिया ऋद्धि से शीघ्र ही हस्तिनापुर पहुंचे। राजा पदम को असमर्थ जान स्वयं ने मुनि वात्सल्य से ओतप्रोत हो वामन अंगुल के ब्रााहृण का रूप बनाया तथा दक्षिणा राजा बलि ने जलांजलि पूर्वक उन्हें तीन पैर भूमि दी। उसी क्षण उन्होंने विक्रिया ऋद्धि से रूप बढ़ाकर दो पैर में ही सारी पृथ्वी नाप ली और तीसरा पैर रखने के लिए जगह न रही तब बलि ने वचन हारकर उनसे क्षमा मांगी तथा जीवनरक्षा की भीख मांगी तब मुनिराज विष्णुकुमार ने उसे अभयदान दिया। उस वक्त 700 मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ, जन-जन में खुशियां छा गई। घर-घर चौके लगाकर आहार दान दिया गया। परस्पर रक्षासूत्र (यज्ञोपवित) पहनाकर सम्मान किया गया। वहीं रक्षाबंधन आज हम सभी मना रहे हैं। इस अवसर पर श्रमणाचार्य सुबलसागर एवं सुपाश्र्वसागर महाराज ने भी प्रवचन में बताया कि आज का पर्व मुनि निंदा का नहीं, मुनि वात्सल्य का पर्व है। हम रत्नत्रयधारी सभी गुरुओं के भक्त बने, संकीर्णता छोड़ वात्सल्य रूपी सूत्र बांधकर रक्षाबंधन को सार्थक सफल करें। इस प्रसंग पर मंच पर संपूर्ण घटना का सुन्दर चित्रण किया गया तथा संपूर्ण कोलकाता समाज ने 700 मुनियों का विधान एवं श्रेयांशनाथ भगवान का निर्वाण लाडू चढाया।