अग्लानभाव से शैक्ष-नवदीक्षित का वैयावृत्य, अग्लानभाव से कुल का वैयावृत्य, अग्लानभाव से गण का वैयावृत्य, अग्लानभाव से संघ का व अग्लानभाव से सधार्मिक का वैयावृत्य होता है।
निर्जरा के 12 भेदों का नवां भेद है वेयावृत्य। वेयावृत्य का अर्थ है सेवा भावना कोई भी साधु, नवदिक्षित मुनि, शिक्षक, आचार्य, उपाध्याय तपस्वी मुनि, रोगी साधु व संघ की सेवा कर सकता है। सेवा तभी सही है जब भीतर में करुणा, दया और विनम्रता की भावना से सेवा की जाए।
सेवा करने की सक्षमता भी आवश्यक है। सेवा एक धर्म है आचार्य अवस्था में छोटे हों या बड़े उनकी योथोचित सेवा करना, भोजन व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था उनके आसपास रहकर उनकी अपेक्षानुसार सेवा करनेवाला साधु महा निर्जरा करने वाला बनता है। रुग्णसाधु व तपस्वी की यथोचित सेवा करनी चाहिए। सेवा से महाकर्म निर्जरा होती है। संघ की सेवा करना, धर्मसंघ की सार संभाल करना एक श्रावक का कर्तव्य है।
स्थिवर, तपस्वी, गणकुल, सधार्मिक इनकी जो अहोभाव से सेवा करता है, वो मेवा पाता है। अपने जीवन में सेवा भावना को पुष्ट करते रहना चाहिए। दूसरों को चित्त समाधि पहुचानी चाहिए। धर्मसाधना करते हुए किसी साधु का मन विचलित हो तो उसे स्थिर करना भी एक सेवा है। प्रकृति पर ज्यादा ध्यान न देकर, सेवा की संस्कृति पर ध्यान देना चाहिए। हम व्यक्ति को न देेखें, सेवा को प्रधानता दें।
माला फेरना, ध्यान, स्वाध्याय करना एक बात है। पर सेवा करना इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। बीमार व्यक्ति की सेवा करना सापेक्ष है। सिंघाड़ों में भी मिलकर एक दूसरे की सेवा करना कर्म निर्जरा का भाव है और साथ में सेवा भावना से तीर्थंकर नामकरन का बंध भी हो सकता है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा ने दिशा परिमाणव्रत का विवेचन करते हुए कहा कि हमें 12 व्रतों को समझकर धारण करना चाहिए। हमें अपने इच्छाओं को सिमित करना होगा। हम अपने जीवन में त्याग को महत्व देना है। हमारी त्याग की भावना पुष्ट हो ऐसा प्रयास करते रहना चाहिए।