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गूंजने लगे गणगौर के गीत

बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में आजीविका के लिए बरसों पहले आए राजस्थानी प्रवासी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक विरासत को आज भी सहेजे हुए हैं। रंगों के त्योहार होली के बाद अब गणगौर पर्व आने वाला है। इसके तहत 25 मार्च से गणगौर उत्सव शुरू होगा। महानगर में गणगौर मण्डलियों में गीत गाए जाते हैं। अलग-अलग इलाकों की गणगौर का अलग-अलग इतिहास और महत्ता है। गणगौर मंडलियों के बारे में और गाए जाने वाले गीत (जो अब लोकगीत बन चुके हैं) और उनके रचयिता के बारे में जानकारी दे रहे हैं पी शीतल हर्ष ...

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गूंजने लगे गणगौर के गीत

गूंजने लगे गणगौर के गीत

बड़ाबाजार की 9 और आसपास के क्षेत्रों की 8 मंडलियों की ओर से आयोजित होता है गणगौर उत्सव
कोलकाता. आस्था-प्रेम और पारिवारिक सौहाद्र्र का सबसे बड़ा उत्सव गणगौर राजस्थान का एक ऐसा प्रमुख त्योहार है जो चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तीज को आता है। होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक 18 दिनों तक चलने वाला त्योहार गणगौर इस वर्ष 27 मार्च को मनाया जाएगा।
कोलकाता में मिनी राजस्थान के नाम से मशहूर बड़ाबाजार में 9 गणगौर मंडलियां गणगौर उत्सव का 3 दिवसीय भव्य आयोजन करती हैं। बड़ाबाजार से अन्यत्र जाकर बसे प्रवासी राजस्थानियों ने भी अपने-अपने इलाकों में गणगौर उत्सव प्रारम्भ कर दिया है, जिसमें वीआईपी अंचल, विधान नगर, पूर्वांचल, हावड़ा उत्तर, हावड़ा दक्षिण, आशापुरण लिलुआ, हिन्दमोटर-1 एवं हिन्द मोटर-2 प्रमुख हैं। इसी दिन कुंवारी लड़कियां, विवाहित महिलाएं गणगौर की पूजा करते हुए दूब से पानी के छांटे देते हुए गणगौर के गीत गाती हैं।

मनपसंद वर व पति की दीर्घायु की कामना
गण (शिव) तथा गौर (पार्वती) के इस पर्व में कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर पाने की कामना करती हैं। सुहागिनेेंं चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर पूजन तथा व्रत कर पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि माता गवरजा होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती हैं और 8 दिन बाद ईसर (शिव) उन्हें वापस लेने आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को उनकी विदाई होती है। गणगौर की पूजा में गाए जाने वाले लोकगीत इस अनूठे पर्व की आत्मा है। जहां राजस्थान में बीकानेर, नागौर, जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के गणगौर मेले जगत प्रसिद्ध हैं तो कोलकाता में होने वाले गणगौर मेले ने भी अपनी खास जगह बनाई है। गणगौर वैसे तो महिलाओं का प्रमुख त्योहार है पर कोलकाता में प्रवासी राजस्थानी समाज के पुरुषों की ओर से भी उमंग-उत्साह से इसे मनाया जाता है।

बंगभूमि पर 250 वर्षो से हो रही गणगौर पूजा
प्रवासी राजस्थानी अपने साथ अपनी लोक संस्कृति और त्योहार साथ लेकर चलते हैं। वे जहां भी जाते हंै वहां मिनी राजस्थान बसा देते हैं। बंगभूमि पर करीब 250 वर्षों से गणगौर पूजा हो रही है पर सामूहिक रूप से 1880 (विक्रम सम्वत 1937) में पहली बार पूजी गई जब बांसतल्ला के बलदेवजी मंदिर में गणगौर उत्सव मनाया गया और तब बलदेवजी गवरजा माता मंडली की स्थापना हुई। तिरंगा धनुष भांत रंग का पेचा (पागड़ी) इस मण्डली की पहचान है। 1981 में जब बलदेव गवरजा माता मंडली ने अपनी शताब्दी मनाई तब निम्बुतला पंचायत गवरजा माता ने अपनी मंडली का अमर गीत (जिसे विक्रम सम्वत 2038 में चंपालाल मोहता अनोखा ने निम्बुतल्ला के लिए लिखा था) बलदेव गवरजा को समर्पित कर दिया।

आज भी प्रशंसकों के दिलों में बसा है यह गणगौर गीत
...ओ शंख बजे ओ शहनाई रे मैया सुखदायनी,
देखो रुनक-झुनक घर आई रे।
शंख बजे ओ ...
किरणों के रथ पर कर के सवारी,
निकली सज के मैया हमारी,
नीले नभ में चांद सितारे,
सहमे हुए हैं लाज के मारे।
मैया सुखदायनी...
मणियों का है मुकुट सुशोभित,
जगमग-जगमग जग है आलोकित,
मुक्त खुले है कुंतल कजरारे,
कोमल कुसुम कपोल दुलारे।
मैया सुख दायनी.
ममता भरे हैं दो नैन मनोहर,
स्वर गंगा लहराए अधर पर,
पलकों में है विस्तार गगन का,
चरण कमल चौखट है नमन का।
मैया सुखदायनी
चम्-चम्-चमके मांकी चुनरिया,
छम-छम-छम छम बाजे पैजनिया,
धूम मची है तीनों भुवन में,
सांसों की है खूशबु पवन में।
मैया सुखदायनी..
सपनों का फिर मधुमास खिले मां,
अरमानो का दीप जले मां,
दूर तिमिर की छाया भगा दो,
शान्ति सुधा रस धार बहा दो।
मैया सुखदायनी।