पिछले एक दशक में ममता बनर्जी के सामने किसी राजनीतिक दल ने इतनी बड़ी मुश्किल पैदा नहीं की जितनी पिछले कुछ महीनो ंसे भाजपा ने की है। वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल से तृणमूल कांग्रेस का सफाया हो गया है। भाजपा ने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं। उसका मतप्रतिशत 40 के पार पहुंच चुका है। जंगलमहल की भी यही स्थिति है। नदिया, बर्दवान, उत्तर २४ परगना में कांटे की टक्कर वाले हालात हैं। उनकी पार्टी के कई गढ़ों पर भगवा लहरा रहा है, कोलकाता और आसपास के जिलों में तृणमूल कांग्रेस के किलों की घेरेबंदी से निपटने में उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ रही है। अकेले बैरकपुर शिल्पांचल में भाजपा ने उनकी पार्टी को मुंहतोड़ जवाब दिया है। यहां पार्टी की राह में बिछे कांटों के कारण उनकी पार्टी के नेताओं को दिन रात एक करना पड़ रहा है। भाजपा का उत्थान ममता के लिए अप्रत्याशित तो था अब बढ़ती भाजपा ने उनके राजनीतिक भविष्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी पेश कर दी है।
हर समय सुर्खियों से दूर रहने वाले अंदरूनी जिलों मसलन बीरभूम, कूचबिहार, पश्चिम मिदनापुर, हुगली के कई इलाकों में पुलिस- प्रशासन के अब आंख मूंद कर तृणमूल नेताओं के हुक्म की तामील करने से परहेज करने के प्रसंग सार्वजनिक होने लगे हैं। जिनपर स्वयं ममता प्रशासनिक बैठकों पर मुहर लगा रही हैं। तृणमूल कांग्रेस की छवि सुधारने के लिए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के रणनीतिक प्रयास जमीनी स्तर पर आकर हिचकोले खा रहे हैं। पार्टी शुद्धिकरण के लिए कटमनी के खिलाफ तृणमूल सुप्रीमो की ओर से शुरू किया गया अभियान बूमरैंग हो चुका है। जिसका भाजपा ने जिलों में जमकर फायदा उठाया है। दीदी के बोलो अभियान में पार्टी में फैली गुटबाजी के कारण जमकर शिकायतें हुई हैं। आलाकमान उन शिकायतें के निपटारे को लेकर पशोपेश में है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी पूरी ताकत लगाकर ममता सरकार के खिलाफ मैदान में उतर चुका है। एनआरसी, लव जिहाद, रामनवमी, बजरंग जयंती जैसे मुद्दों के सहारे वह अनुशांगिक संगठनों की पूरी फ ौज तैयार कर रहा है। जिनसे निपटने में तृणमूल को पसीने छूट रहे हैं। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, अभाविप, दुर्गावाहिनी जैसे संगठन लगातार मजबूत हो रहे हैं। सीमायी इलाकों में इन ांगठनों के नेटवर्क मजबूत होने और सदस्यता बढऩे से धु्रवीकरण तेज हुआ है।
वामपंथी दलों के छात्र संगठन युवाओं और छात्रों के बीच वहीं श्रमिक संगठन मजदूरों, श्रमिकों के बीच अपना पुराना जनाधार पाने के अभियान में लगे हुए हैं। वाममोर्चा आंदोलन की कमान युवा छात्रों को सौंप रहा है। जिसमें उन्हें सफलता भी मिलती दिख रही है।
प्रशासक के तौर पर ममता बनर्जी के लिए गए हालिए कई निर्णय भी साबित करते हैं कि उनपर लदा दबाव अब बहुत बढ़ चुका है। राज्य के सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि की लंबे समय से मांग पूरी करने की वे घोषणा कर चुकी हैं। लेकिन सरकारी कर्मचारी इसे झटके खाने के बाद लिया गया निर्णय बता रहे हैं। वहीं ग्रामीण अंचलों में विकास कार्यों के नाम पर हुए भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे हैं। ग्रामीण मुखर हो रहे हैं। पंचायत चुनावों में हुई हिंसा का दौर ग्रामीण भूलने को तैयार नहीं हैं।