महज 11 वर्ष की उम्र में ही वे संन्यास ग्रहण कर हिमालय की प्रान्तर में दीर्घ 80 साल कठिन ब्रह्मचर्य, सुदीर्घ उपवास, हठयोग, आदि की साधना कर भक्तियोग, कर्मयोग एवं ज्ञानयोग की परम तत्व को प्राप्त किए थे। सिर्फ हिंदू धरम में ही नही, मक्का-मदीना भ्रमणकाल में मुस्लिम धर्म में ज्ञानी मोल्ला-सूफी आदि से पवित्र कुरान के सम्बन्ध में ज्ञान अर्जित कर काशीधाम वापस आकर उस समय में विख्यात तपस्वी तैलंग स्वामीजी (जिनको लोग चलित शिवजी कहते थे) के साथ अरब, इस्रायल, अफगानिस्तान एवं यूरोप के देशों की तथा विश्व परिक्रमा कर भारत वापस हुए थे।
महायोगी बाबा लोकनाथ जी का ख्याति उनकी चर्चाएं लोगो में शुरू हुआ जब वे बारदी ग्राम में रहने के लिए आए। एक दिन वे राह से गुजरते समय देखे की कुछ ब्राह्मण जनेव (यज्ञ उपवीत) तैयार कर रहे और जनेव के धागे वापस में एक दूसरे से लिपट जा रहे हैं। वे धागों को अलग अलग कराने का कोशिश करते कराते थक चुके थे, लेकिन धागों को अलग-अलग नही कर पा रहे थे। तब बाबा लोकनाथ ने धागों को बिना स्पर्शकर केवल गायत्री मंत्र को जाप कर उन्हें को अलग -अलग कर दिया। उक्त घटना के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।
श्रद्धालु कहते बाबा लोकनाथ के पास विश्व का सभी प्राणी उनका सन्तानसम है, जिसमें कोई भेद भाव, जात-पात, ऊंच-नीच नहीं है। सब लोग बाबा की सन्तान हैं। महानिर्वाण काल के पूर्व उन्होंने कहा था ‘‘ मैं नित्य (सदा) जाग्रत हंू, तुम लोगों के सुख में सुखी, तुम लोगों के दु:ख में दुखी। मेरा विनाश नहीं है। मै अविनश्वर हूँ। मैं हूं, मै मैं हूं, मैं हूं। सिर्फ सुख के समय नहीं, रण में, वन में, जल में, जंगल में जब भी कोई आपदा आएगी, उस क्षण में मेरा नाम का स्मरण करना, मैं ही रक्षा करंूगा।’’ बाबा का दिया हुआ अभय वचन आज के दिनों में चरम सत्य है।