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बस्तर के वनांचल में आदिवासियों की दिनचर्या में आज भी कई काम बिन पत्तों के है अधुरा

locationकोंडागांवPublished: Nov 16, 2018 10:36:39 am

Submitted by:

Badal Dewangan

बस्तर के वनांचल में आज भी जिंदा है आयुर्वेद, बिना पत्तों के उनका जीवन है अधुरा, पत्तों के उपयोग से आदिवासियों को मिल रहा धनवंतरी का आशीर्वाद
 

बस्तर के वनांचल में

बस्तर के वनांचल में आदिवासियों की दिनचर्या में आज भी कई काम बिन पत्तों के है अधुरा

रामाकांत सिन्हा/कोण्डागांव. वर्तमान समय में आधुनिकता ने हर किसी को अपने गिरफ्त में ले रखा हैं, लेकिन बस्तर के वनांचल में रहने वाले आदिवासी आज भी अपनी परम्परा से दूर नहीं हैं। आधुनिकता इस भागमभाग में हम अपने शरीर में रसायनिक व कृत्रिम चीजों का जाने-अनजाने में सेवनकर अपनी मानव काया को धीरे-धीरे बर्बाद करते जा रहे हैं। तो वही वनवासी अपनी आदि संस्कृति के साथ आज भी आयुर्वेद के गुणों को आत्मसात किए हुए हैं। जिससे निश्चित तौर पर अपने संस्कृति के साथ वनवासियों ने अपने शरीर को भी संवार रखा हैं।

वनवासियों का मानना है कि
बस्तर के आदिवासियों के बीच पेड़ पत्तों के उपयोग को इनकी संस्कृति कहे या आयुर्वेद का ज्ञान वनवासी आदिवासी की दिनचर्या की बात करे तो बगैर पत्तों के उनके बहुत से काम अधूरे है। वे लोग खाना खाने के लिए साल वृक्ष के पत्ते, शराब सेवन के लिए महुआ के पत्ते और भगवान का प्रसाद खाने के लिए कुड़ई पत्तों का उपयोग करते हैं। इन वनवासियों का मानना है कि इस तरह पत्तों का उपयोग करने से उन्हें कई तरह की बीमारियों से सुरक्षा मिलती है और कई छोटी-बड़ी बीमारी स्वत: समाप्त हो जाता हैं। वहीं आदिवासी अधिकारी-कर्मचारी प्रकोष्ठ के जिला सविच रामलाल नेताम ने बताया कि समाज में पत्तों का विशेष महत्व हैं। और अलग-अलग समय में इनका उपयोग भिन्न प्रकार से होता हैं।

नवाखाई से तर्पण तक होता पत्तों का महत्व
जड़ी-बूटी के जानकार व हर्बल फ ार्मर डॉ. राजाराम त्रिपाठी की माने तो बस्तर के आदिवासी जिन पत्तों का उपयोग करते है उन पत्तों से शरीर में जितने भी हानिकारक बैक्टीरिया होते है वो खत्म हो जाते है। नवाखाई में भी अन्न को भूनकर एक विशेष प्रकार के पत्तों में रखते हैं। इन पत्तों का क्या उपयोग है क्या वास्तव में इसका कोई औषधीय महत्व है या केवल एक महज परंपरा यह रोचक हैं। उन्होंने बताया कि, बस्तर के वनवासी जिन पत्तों का उपयोग प्रसाद ग्रहण करने में करते है उसका नाम कुडई जिसे आयुर्वेद में कुटज कहा जाता हैं। इसके पत्ते से जो दूध निकलता है उसमें औषधीय तत्व पाए जाते है। लेकिन स्थानोकापियां में इसके छाल दूध व इसके पत्तों से पेट के कृमि को मारने का गुण होता हैं। इसके साथ ही इसमें कई अन्य औषधीय गुण भी हैं।

यह कहते है आयुर्वेद चिकित्साधिकारी
आयुर्वेद डॉक्टर चंद्रभान वर्मा ने बताया कि कच्चे पत्तों में क्लोरोफ ील होती है और पत्तों में कई प्रकार के एंटीबायोटिक तत्व होते है जो कि, इन पत्तों पर भोजन करने से वे भोजन के साथ पेट में चले जाते है और मनुष्य के शरीर में पहुंचकर यह फ ायदा पहुुचाते हैं। वहीं पत्तों का उपयोग वनवासी अपने संस्कृति के कारण भी करते हैं।

लोक साहित्यकारों का कहना है
लोक साहित्यकार व आदिवासी कुंदतियों के जानकार हरिहर वैष्णव की माने तो वनवासी जन्म से मृत्यु होने तक पत्तों का उपयोग करते हैं। वही स्मरण करते हुए उन्होंने बताया कि, साहित्यकार कीर्तिशेष लाला जगदलपुरी के आलेख पर प्रकाश डालते कहते है कि, वनवासियों के जीवन में पत्तों की पात्रता आलेख में उन्होंने इस विषय पर जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक पत्तो भूमिका पर प्रकाश डाला हैं। वह अलग-अलग है जैसे दोनाकई प्रकार है खुलादोना, चोखना दोनो, डोबलादोना, दोने के ही कई प्रकार हैं । हर प्रकार के कार्य के लिए अलग-अलग तरह के दोने का इस्तेमाल किया जाता है। यहां तक कि पेज पीने के लिए भी उपयोग होने वाले दोने को पुतकी दोना कहते है वही तर्पणी के लिए चिपड़ी का उपयोग किया जाता हैं।

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