दीवाली पर नगर के हद्य स्थल पर स्थित गढ़ भवन पेलेस के द्वार जनता के लिए खोल दिए जाते थे। गढ़ भवन का स्वर्णिम और वैभवयुक्त राजशाही नजारा जनता को देखने को मिलता था। नरेश जनता के बीच जाकर दीवाली मनाते। रियासतकालीन दीवाली की मधुर स्मृतियों को संजाएं बैठे शहर के बुर्जुगवारों ने पत्रिका के साथ सांझा की अपनी यादें…..हालाकि पहले संयुक्त परिवार के साथ रहते हुए दीवाली मनाने का आनंद उनके झुर्रीदार चेहरे से झलका, लेकिन वर्तमान में एकांकी व सीमित परिवार की टीस भी उनके दिल में उभरती हुए महसूस की गई।
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तोप से होता था दिवाली का स्वागत
इतिहासकार ललित शर्मा ने बताया कि दीपावली के दिन उस युग में गंावड़ी के तालाब के किनारे चांदमारी में राज्य की ओर से तोपखाने की गर्जना वाली तोपें चलाई जाती थी जो दिपावली के स्वागत का प्रतीक होती थी। गढ़ भवन में गढड्े खोद कर उनमें बांस लगाये जाते थे। बांसों पर मिट्टी के दीपकों की कतार को बड़ी कुशलता से सजाया जाता था। उसमें दीवाली की रात तेल डाल कर जलाया जाता। दीपकों की सुनहरी रोशनी में गढ़ भवन अयोध्या के राजमहल के समान स्वर्णिम और वैभवयुक्त हो उठता था। उस समय भवन के सुंदर व आलीशान विशाल कक्षों को आमजन के अवलोकनार्थ खोला जाता था। उनमें सजी शाही व बहुमूल्यवान कलाकृतियों शस्त्रों आदि का आमजन परिवार सहित अवलोकन करते थे। Deepawali festival: दीयों से रोशन हुई शिक्षा नगरी, आतिशबाजी से गूंज उठा आसमान सवारी देखने उमड़ते थे लोग
शहर के 90 वर्षीय मोहनलाल गुप्ता ने बताया कि दीवाली पर कोठी से गढ़ भवन तक दरबार बग्गी में सवार होकर निकलते थे। उस दौरान सड़क किनारे स्थित दुकानों व मकानों पर दीपक से रोशनी की जाती थी। मंगलपुरा चौराहे से गढ़ के दरवाजे तक दोनो ओर स्थित मकानों के झरोखों पर दीपक व मोमबत्तियां जला कर विशेष रोशनी की जाती थी। इस दौरान लोग सवारी देखने के लिए उमड़ जाते थे।
शहर के 89 वर्षीय बाबूराम आर्य ने बताया कि दीवाली पर शहर में अधिकतर लोग परिवार के साथ आनंद उठाते थे। संयुक्त परिवार में सबसे ज्यादा फुलझड़ी चलाई जाती थी। इसमें परिवार के सभी सदस्य भाग लेते थे। इसी तरह गोरधन पूजा के दिन भी पशुओं को सजाने व दीवाली मनाते थे। संयुक्त परिवार के साथ त्यौहार मनाने का आनंद आता था। दीवाली पर पुरुषों के मनोरंजन के लिए सार्वजनिक रुप से कालेबाबू की हवेली क्षेत्र में चौसर जमती थी।