scriptतब बस व ट्रेन देखकर भी इन्हें होता था आश्चर्य .. | International Day of the World's Indigenous Peoples 2020 | Patrika News

तब बस व ट्रेन देखकर भी इन्हें होता था आश्चर्य ..

locationकोटाPublished: Aug 09, 2020 11:31:50 am

Submitted by:

shailendra tiwari

हौले-हौले चल रही आदिवसी क्षेत्र में बदलाव की बयार
 

तब बस व ट्रेन देखकर भी इन्हें होता था आश्चर्य ..

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बारां जिला राजस्थान के उन जिलों में शुमार है, जहां बड़ी संख्या में आदिवासी निवास करते हैं। जिले के शाहाबाद, किशनगंज, केलवाड़ा, देवरी और शाहाबाद ऐसे इलाके हैं जहां आदिवासी जल, जंगल और जमीन के साथ अपना रिश्ता वैसे ही रखे हुए हैं, जैसे सदियों पहले से था। बरसों तक तिरस्कृत और अलग-थलग रहे ये आदिवासी अब आधुनिकता और विकास की धारा से जुडऩे लगे हैं। अगर सरकार के स्तर पर कोई ठोस नीति बनाकर इन लोगों को आगे बढ़ाया जाए तो इस समाज के लोगों का सर्वांगीण उत्थान के सपने को मूर्त रूप मिल सकता है। ऐसे में देश के विकास में इनका योगदान भी गिना जाने लगेगा।
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बारां जिले के किशनगंज व शाहाबाद उपखंड मुख्यालय ऐसे हैं, जहां देश के आदिवासी सहरिया समाज के लोग बहुतायात में निवास करते हैं। आजादी के कई दशक बाद तक जल, जंगल व जमीन से जुड़े इस समुदाय के लोगों की आवश्यकता सीमित होने थी। तब बस व रेल का सफर इन्हें विस्मय में डाल देता था। इसी बीच दंबगों ने इन्हें प्रकृति प्रदत्त जल, जमीन व जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। यहां तक कि इनके खाते की जमीनें भी छीन ली गई। यह लोग कर्ज के बोझ के नीचे दबते चले गए, लेकिन बीते दो दशकों में इस आदिवासी कौम में धीरे-धीरे बदलाव की धारा बह रही है। यह शुरुआत कही जा सकती है, लेकिन इसमें उम्मीद की किरणें नजर आती हैं और सरकार के स्तर पर कोई ठोस नीति बनाकर इन लोगों को आगे बढ़ाया जाए तो इस समाज के लोगों का सर्वांगीण उत्थान के सपने को मूर्त रूप मिल सकता है। इनकी बदलती दशा व दिशा रोशनी डालते यह तीन अच्छे उदाहरण, जिन्हें देखा और समझा है संजय ओझा व पदम गोस्वामी ने। इस रिपोर्ट में पढ़ें बदलाव की कहानी।
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संगठन बना तो जाग्रत हो गई आदिवासी महिलाएं
जाग्रत महिला संगठन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र किशनगंज व शाहाबाद का मजबूत संगठन है। यह संगठन 2008 से महिला हिंसा, मनरेगा, स्वास्थ्य, शिक्षा, वनाधिकार, दबी जमीन, सूचना का अधिकार, पेंशन, पेयजल समेत अन्य मूलभूत सुविधाओं के मुद्दे पर काम कर रहा है। संगठन के माध्यम से क्षेत्र में मनरेगा में नियमित रूप से रोजगार मिल रहा है। संगठन महिलाएं गांव के लोगों के साथ ग्राम पंचायत पर जाकर आवेदन करवाने में सहयोग करती हैं। वहीं मनरेगा भुगतान को लेकर भी ब्लॉक स्तर के अधिकारियों से बातकर समय पर करवाने में सहयोग करती हंै। इसी तरह पीडीएस के मुद्दे को लेकर जिला रसद अधिकारी बारां से बात कर समय पर उपभोक्ताओं को राशन सामग्री, घी, तेल, दाल का पैकेज वितरण करवाने में सहयोग करती है। वहीं दोनों ब्लॉक खेरूआ समुदाय के 8000 लोग निवास करते हंै। यह समुदाय अधिकतर पलायन पर रहता है और खदानों पर पत्थर फोडऩे का कार्य करता है। इनको 2 रुपए किलो के हिसाब से राशन का गेहंू मिलता था। संगठन ने इस समुदाय के लिए नि:शुल्क 35 किलो गेहंू व घी, तेल व दाल के पैकेज के लिए राज्य सरकार से लम्बी लड़ाई लड़ी। जयपुर में होने वाले सामाजिक संगठनों के धरने व प्रदर्शन में भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। इसके चलते फरवरी 2019 से खेरूआ समुदाय को पीडीएस के तहत नि:शुल्क मदद मिलने लगी। प्रत्येक ग्राम पंचायत मुख्यालय पर सामाजिक न्याय अधिकारिता विभाग के शासन सचिव से संगठन की महिलाओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने मिलकर पेंशन के केम्प लगाने की मांग की थी। जिसे प्रशासन को मानना पड़ा। संगठन की पहल पर वनाधिकार के दावे लगवाए गए और करीब 200 दावों का निस्तारण करवाकर इनको पट्टे दिलवाने में सहयोग किया। इसी तरह संगठन द्वारा जयपुर में आयोजित संगठनों की एक बैठक में जाग्रत महिला संगठन की महिलाओं ने मुख्यमंत्री राजस्थान सरकार को लिखित में ज्ञापन देकर अवगत कराया गया कि क्षेत्र में वनाधिकार के मामलों का निस्तारण किया जाए। संगठन की अध्यक्ष कल्लीबाई बताती हैं कि संगठन द्वारा किशनगंज व शाहबाद क्षेत्र में करीब 222 बन्धुओं मजदूरों को मुक्त कराया गया था। संगठन की महिलाएं देश की नामी स्वयंसेवी संस्थाओं के लोगों से सम्पर्क में रहती हैं। फिर चाहे वे सूचना के अधिकार के लिए जंग लडऩे वाली अरूणा राय हो या सामाजिक पुरोधा निखिल डे।
सहरियाओं में जगा रहे रक्तदान का जज्बा
मां-बाड़ी केन्द्र में शिक्षा सहयोगी के रूप में कार्यरत बृजेश सहरिया गत तीन वर्षों से उस समाज में रक्तदान की अलख जगा रहे है, जिस समाज के लोग व बच्चे जिले में सबसे अधिक रक्त की कमी से जूझते हैं। एनीमिया (खून की कमी) से आदिवासी सहरिया समाज में मौतों का ग्राफ जिले में सर्वाधिक है। शिक्षा के अभाव व रक्तदान को लेकर भ्रान्तियों के कारण इस समाज के युवा व प्रौढ़ रक्तदान की नौबत आने पर भाग छूटते हैं, लेकिन धीरे-धीरे ही सही इस समाज के लोगों में जाग्रति आने लगी है। बृजेश बताते हैं कि 2008 में जब वे शाहाबाद हॉस्टल में रहकी पढ़ाई कर रहे थे तब सहरिया समाज में कुपोषण, खून की कमी के अलावा खून के अभाव में दुर्घटनाओं के शिकार मौतों के मामले उन्हें विचलित करते थे। ऐसे में उन्होंने पहली बार हॉस्टल के छात्रों के साथ मिलकर पहली बार रक्तदान किया था। लेकिन बाद में पढ़ाई पर ध्यान लगाने से वे चाहकर भी समाज के बदलाव की सोच को गति नहीं दे सके। बाद में बीए किया तथा मांगरोल स्थित मां-बाड़ी केन्द्र में नौकरी लग गई। मूलत: केलवाड़ा कस्बे के रहने वाले बृजेश पहले खुद एक ब्लड डोनर सोसायटी से जुड़े तथा तीन साल पहले अपने सपने को मूर्तरूप में देने में जुट गए। गांव-गांव (सहराणों) में पहुंच सहरिया समाज के लोगों में रक्तदान को लेकर भ्रान्ति दूर करने में जुट गए। इसके अब परिणाम सामने आने लगे हैं। लगभग साढ़े पांच सौं सहरिया युवकों से रक्तदान करा चुके हैं। वे बताते है कि अब उनके पास समाज के ऐसे युवाओं की सूची है, जो आपातकाल में उनके बुलावे पर ब्लड बैंकों में पहुंच रक्तदान करते हैं। वे शाहाबाद उपखंड क्षेत्र में एक-एक गांव में पहुंच रहे हैं। जहां वे सहराणों में युवाओं की चौपाल लगा समाज की दशा व दिशा को समझाने के साथ रक्तदान को लेकर फैली भ्रान्तियों को दूर कर युवाओं को रक्तदाता समूह से जोड़ते हैं। बीते तीन वर्षों में सिर्फ सहरिया समाज की भागीदारी से तीन रक्तदान शिविरों से 150 यूनिट से अधिक रक्तदान करवा चुके हैं। आम दिनों में आपातकाल के हालात में वे समाज के युवाओं को फोन कर रक्त देने के लिए बारां, कोटा व केलवाड़ा कस्बे में बुलाते हैं। बृजेश का कहना है कि सहरिा समाज अब शिक्षा से जुड़कर अपने आप को बदलने की डगर पर चलने लगा है। जो आने वाले दिनों में समाज की मुख्यधारा में शामिल होगा। इसके लिए युवाओं का आगे आना शुभ संकेत है।
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मेहनत की बाड़ी में आत्मनिर्भरता के फल
आदिवासी सहरिया बाहुल्य शाहाबाद उपखंड क्षेत्र की सहरिया महिलाएं एक स्वयंसेवी संगठन के सहयोग से अब धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता की ओर बढऩे लगी हंै। सहरिया परिवारों की स्थाई आजीविका के लिए सरकार के फल बाड़ी कार्यक्रम की परिकल्पना धरातल पर कारगर साबित हो रही है। एक संस्था के सहयोग से सहरिया परिवारों के खेतों में लगाई गई फल बाडिया न केवल फल-फूल रही हैं, वरन् इनसे जुडे सैकड़ों परिवारों को आर्थिक संबल भी दे रही है। शाहाबाद क्षेत्र में करीब छह साल पहले मव गांव के कुल 114 सहरिया परिवारों को फल बाडिय़ों में लगोन के लिए नीबू, अमरूद, कटहल सहजना के पौधों का वितरण किया गया। इसके एक साल बाद उपखंड क्षेत्र के 36 गांव के 186 परिवारों को फल बाड़ी के लिए पौधे दिए गए । संस्था द्वारा कृषि विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में सहरिया परिवारों को फल बाड़ीी योजना के बारे में जानकारी देकर प्रशिक्षण दिलाया गया। अब अधिकांश फल बाड़ी से सहरिया परिवारों को फल मिलना शुरू हो गया है। जो भविष्य में इन परिवारों की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में कारगर साबित होग। महिलाएं इन फल बाड़ी की देखरेख करती है। अब यह अन्य सहरिया महिलाओं को भी ऐसी बाडिय़ां लगाने की सलाह देने लगी है। इनका कहना है मजदूरी के नाम क्षेत्र में सहरिया समाज के लोगों का शोषण अधिक होता है। वर्तमान दौर में भी कई परिवार बंधुआ मजदूरों जैसा जीवन जीने के विवश हैं। इन हालात से मुक्ति के लिए पढ़ाई ही एक मात्र सहारा है, वे खुद अनपढ़ हैं, लेकिन इस तरह आय के स्रोत विकसित होने से वे अपने बच्चों को शिक्षा से जोड़ सामाजिक विकास में योगदान तो कर ही सकती हैं। शाहाबाद की कुगर बाई ने फरेदुआ में गुड्डी बाई, शुभघरामेंं राधा व राजकुमारी, मझारी में मकरी बाई, कुपाशी बाई व रानी बाई, महुआ खेड़ी में कमला, मठियाखारा में मुन्नी बाई, हरियानगर में सुखिया बाई, किराड़ पहाड़ी में सिया बाई, बेंहटा में गुड्डी बाई, बड़ारा में लीलाबाई व मुन्नी सहित कई महिलाओं ने फल बाड़ी लगाकर अपने और अपने परिवार को आत्मनिर्भर बना दिया। शाहाबाद में अब आपको लीची जैसे फलों की पैदावार चौंका सकती है, लेकिन यह वास्तविकता है और यही वास्तविकता सहरिया समाज को उत्थान की राह की ओर अग्रसर करती दिखाई पड़ रही है। ऐसे में सरकार का सहयोग प्रदेश में सिर्फ बारां जिले में निवास करने वाले आदिवासी सहरिया समाज की तकदीर संवारने में कुछ हद तक सार्थक हो सकता है।
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