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अलविदा कर्णिका : मां! तुम्हारी मजबूरी थी तो फिर मेरी पैदाइश क्यों जरूरी थी, जन्म के बाद लावारिस छोड़ी बेटी ने तोड़ा दम

locationकोटाPublished: Jun 24, 2019 01:32:57 pm

Submitted by:

​Zuber Khan

मां! मैंने तुझसे चांद-सितारे कब मांगे थे… रोशन दिल और चंद सांसों की ही तो दरकार थी मुझे…अपने दामन से रुखसत करते वक्त तुमने भी दिल पर पत्थर तो रखा होगा…

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अलविदा कर्णिका : मां! तुम्हारी मजबूरी थी तो फिर मेरी पैदाइश क्यों जरूरी थी, जन्म के बाद लावारिस छोड़ी बेटी ने तोड़ा दम

कोटा . मां! मैंने तुझसे चांद-सितारे कब मांगे थे… रोशन दिल और चंद सांसों की ही तो दरकार थी मुझे…अपने दामन से रुखसत करते वक्त तुमने भी दिल पर पत्थर तो रखा होगा…
प्यारी मां! जब तुम इतनी ही मजबूरी थी…तो फिर मेरी पैदाइश की जरूरत ही क्यों समझी… जिंदगी जैसी नायाब चीज तुमने मुझे दिखाई, लेकिन में तुम्हारी यह रुसवाई न सह पाई… मैं खुशियां बनकर आना चाहती थी, लेकिन तुम्हारा दामन तो दर्द से भर गया… आखिर कौन सी मजबूरी थी, जो मैं तुम्हारे जख्मों का महरम न बन पाई… लो मां! मैंने भी जीने से इनकार कर दिया… तुम्हें हर डर से आजाद कर दिया!
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प्यारी मां! तुम्हारी कोख में ही तो मेरे वजूद ने जिस्मानी आकार लेना शुरू किया था…तुम्हारी हड्डियों से ही मेरा ढांचा गढ़ा… तुम्हारे रक्त से ही मेरी त्वचा और हर अंग पनपे… मेरी धमनियों में बहता खून का हर एक कतरा तुम्हारे ही दिल से होकर तो गुजरा था…लेकिन, अभी तो अनगढ़ थी मैं… सात महीने तक तुम्हारा देखा हर ख्वाब मेरी आंखों में तैरने लगा था…
फिर अचानक कौन सी ऐसी वजह आ धमकी जो तुमसे दो महीने का इंतजार और नहीं हुआ…बेटी जनने से डर गईं… या फिर कुलदीपक की चाह में बेटे की ख्वाहिश पाल बैठी थीं… तो सुनो! मां, तुम भी तो औरत हो और बेटा जनने के साथ ही क्या उसकी जीवन संगिनी के ख्वाब की नाल काट दोगी… चलो यह छोड़ देते हैं। उसके भाग्य पर, लेकिन विधाता ने ऐसी भी तो कोई गारंटी नहीं दी कि बेटे सेवा ही करेंगे? ऐसा होता तो वृद्धाश्रमों की दीवारें ही तामीर न होतीं…।

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…या फिर सहभागी हो गईं मेरे पिता के गढ़े उस डर की, जिसमें समाए थे समाज, रीति-रिवाज और बेटी के बोझ होने के कुतर्क… पूछना चाहती हूं कि आखिर तुम क्यों नहीं डरीं यह सोचकर कि जब भीड़ से घिरी होने के बावजूद भी तुम डर सकती हो तो…मैं चंद घटों की बेजान सी पैदाइश उन भेडिय़ों और गिद्धों के बीच अकेली निडर कैसे सकूंगी।

रविवार की छुट्टी थी, शायद सुबह के दस ही बजे थे… जब तुमने कोख से बाहर ला धकेला मुझे … कुछ पल और सोच लेती… विचार कर लेतीं अपने फैसले पर… तुमने तो आंचल में भरना भी जरूरी नहीं समझा… दूध पिलाने की बात तो छोड़ो… अस्पताल से बहुत ज्यादा दूर भी नहीं था करणी नगर विकास समिति का वो पालना घर… जहां अस्पताल की ही चादर में लपेट कर पटक आए थे मेरे अपने… जिनके तिरस्कार के बाद जमीं पर बोझ सरीखा जान पड़ रहा है मुझे अपना 900 ग्राम वजन…
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नहीं लेना चाहती सांस ऐसी जहरीली दुनिया में… पालना घर वाले मुझे देखकर रो पड़े थे… दौड़े-दौड़े ले आए थे जेके लॉन अस्पताल में… वेंटीलेटर पर रखने के बाद डॉक्टरों ने भी जान झोंक दी थी मुझ अभागन को बचाने में, लेकिन मां… मैंने इस जमाने के दस्तूर अभी नहीं सीखे हैं…
सो मैं तुम्हें जिंदगी भर बेटी के हाल के लिए बेहाल होते हुए जीते नहीं देख सकती… तुम्हारा डर और विकराल हो इससे पहले मुक्त कर रही हूं तुम्हें अपने जन्म के बोझ से… जा रही हूं मां… इस दुआ के साथ कि जो मां-बाप बेटियों के लिए घर-समाज से लडऩे की हिम्मत न जुटा सके… वह उन्हें जन्म देने के लिए भी मजबूर न हों।
…..अलविदा मां!
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