विकास के आसंमा को छुआ वरिष्ठ साहित्यकार मयूख ने बताया कि देश ने चिकित्सा,विज्ञान,उद्योग, सुरक्षा हर क्षेत्र में तरक्की की है। पहले 100 वषोंर् में जितना गत दशकों में हो गया। विज्ञान व तकनीक से देश व दुनियां काफी आगे बढ़ रही है। दुनिया के किसी भी कोने में कोई घटना घटित होती है, पलभर में दुनियाभर में फैल जाती है।
शिक्षा में हम काफी आगे आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचना कल्पना से परे है। एक समय था जब बच्चे 7 साल के हो जाते थे तो स्कूल जाते थे, ढाई साल का बच्चा स्कूल जा रहा है। देश में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा हुआ है। बच्चों में कुशाग्रता भी बढ़ी है। कुछ भटकाव है, लेकिन आशावादी रहें। बच्चे अपने माता- पिता के बताएं संस्कारों को अपननाएं तो कोई दुविधा नहीं होगी।
लोकतंत्र का अर्थ,जनता का जनता के लिए आजादी से पहले कल्पनाएं की थी, इनमें से कई अधूरी है। सपना देखा था कि भारत अंग्रेजाें से मुक्त होगा, तो अपना राज होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिसके पास, जन, धन व बाहूबल है, वही आगे हो रहा है। कमजोर पिछड़ रहा है। यह रास्ता हमारा नहीं है। इसे जनता का राज नहीं कह सकते। पहले परहित की सोच थी, अब स्वहित महत्वपूर्ण हो गया है। नेता अपने विचार बदल लेते हैं और रातों रात सरकारें बदल जाती है। महाराष्ट्र का ताजा उदाहरण है।लोकतंत्र का अर्थ जनता का , जनता के लिए, जनता के द्वारा होना चाहिए। ये भाव कहीं न कहीं गुम हो रहे हैं। विकास सही दिशा में होते रहना चाहिए। हमारा मन गतिमान होता है तो दृश्य आंखों के सामने बनता चला जाता है। विकास भी इसी गति से होना चाहिए।
रिश्ताें से गुम अपनापन आज एक बड़ी कमी अख रही है। भागदौड़ में किसी के पास दो पल अपनेपन की बात करने का समय नहीं है। मिलने जुलने के लिए समय लेना पड़ता है। परिवारों में मु खिया नियम बनाता था, सब उसी पर चलते थे। अब ऐसा श्दा कदा ही देखने को मिलता है। रिश्तों में स्वार्थ का टकराव हो रहा है। संवेदनशीलता कहीं न कहीं कम हो रही है।
चिंतन आचरण में ढले होते हैं, हम संयमित बनें। हमारा चिंतन बेशक बेहद उच्च दर्जे का हो सकता है, लेकिन यह चिंतन आचरण में शामिल नहीं तो किस काम का नहीं। आचरण को उत्तम बनाने की आवश्यकता है।
धर्म तो एक वचन धर्म तो बहुवचन होता ही नहीं है। धर्म तो एकवचन होता है।यह जीवन दर्शन है। सब का मालिक एक है। करुणा, दया मानवता में धर्म का मर्म छिपा है, लेकिन आज धर्म का बंटवारा कर दिया है। धर्म के नाम पर राजतीति हो रही है। ये बातें चिंतित करती है।
दर्द कुछ इस तरह बयां किया… वे लोग कुछ और थे जिन्हें औरो ने विष दिया, हमको तो आस्तिनों के सांपों में डस लिया। हर सांस जिंदगी की नीलकंठ बन गई, हमने हवा के साथ इतना जहर दिया।
हमकों अंधेरी रात से कोई गिला नहीं, हमसे सदैव सूर्य के बेटों ने छल किया। अक्सर मिली जो रोशनी उस तौर पर मिली, जैसे किसी मजार पर जलता हुआ दिया। वे देवता के द्वार पे चंदन घिासा किए, घुंघट के पट खुले नहीं, कैसे मिले पिया।
मखूख बद में बदनाम हो गया, दुखती रगों को छेड़ के, जब जख्मों को सीया।