विष्णु पुराण में वर्णित प्रसंग के अनुसार, लंकाधिपति रावण भगवान शिव का अनन्य भक्त था लेकिन उसे कैलाश पर्वत पर पूजा-अर्चना के लिए आने-जाने में घोर तकलीफ उठानी पड़ती थी और वह आने जाने की कठिनाई से बचने के लिए उन्हें अपने साथ लंका ले जाना चाहता था। उसने कठोर तपस्या करते हुए भगवान शिव को प्रकट होने पर विवश कर दिया और वरदान में रावण को उन्होंने साथ चलने की अनुमति दे दी।
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रावण को इस शर्त का पालन भी करना था कि वह जहां भी उन्हें जमीन पर रख देगा, भगवान वहां से रंचमात्र नहीं हिलेंगे। गोकर्ण क्षेत्र से गुजरते समय यहां की अलौकिक वन संपदा शिव को ऐसी भाई कि उन्होंने यही रूकने का मन बना लिया। उन्होंने लीला रची जिससे अचानक रावण को तीव्र लघुशंका का अहसास हुआ लेकिन उसे अपनी शर्त का ख्याल भी आया इसलिये पास से गुजरते चरवाहे को शिवलिंग कुछ देर धारण करने को मनाकर वह निवृत्त होने चला गया।
उधर शिव ने अपना भार ऐसा बढ़ाया कि चरवाहा व्याकुल हो गया और उसने शिवलिंग जमीन पर रख दिया। वापस आया रावण यह देख बहुत क्रोधित हुआ, शिव को उठाने के तमाम प्रयास किए पर वे टस से मस नहीं हुए और चरवाहे का वध करने को रावण उसके पीछे हो लिया, कुछ दूर एक कुंए में गिरकर चरवाहा तो मृत्यु को प्राप्त हुआ। शिव ने उस चरवाहे को वचन दिया कि सावन महीने में नागपंचमी के बाद पड़ने वाले सोमवार को उस कुंए के निकट एक मेला लगेगा और इस सोमवार को जो श्रद्वालु यहां दर्शन को आएंगे, तभी उन्हें शिव भक्ति का सबसे अधिक लाभ मिलेगा।
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मान्यता के अनुसार, श्रद्वालुओं को शिवमंदिर में दर्शन के बाद भूतनाथ मंदिर में पूजा करने से ही तीर्थयात्रा का पूरा लाभ मिलता है। प्रशासन व नगर पालिका ने भी अपने इंतजामों का ताना-बाना कसने की कवायद पूरी कर ली है तथा भारी वाहनों का नगर में प्रवेश प्रतिबंधित रहने के अलावा चप्पे-चप्पे पर फोर्स तैनात किया गया है।