सर्वप्रथम पवित्र आदि गंगा में डुबकी लगाकर जल ले जाकर जलाभिषेक करते हैं और जो भी मनोकामना करते हैं उसकी पूर्ति होती है। ऐसा श्रद्धालुओं का मानना है। सच्चे मन से मांगी गईं प्रत्येक कामना पूर्ण होती है। इस मंदिर के निर्माण के बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है कि सन 1800 ई. की ईंट यहां आज भी लगी हुई है। बताते है कि मुगल शासक ने इस मंदिर पर आक्रमण किया था। मन्दिर से निकले बिच्छुओं ने मुगलों की सेना को परास्त कर दिया था। मंदिर के दक्षिण में रखी खंडित मूर्तियां इस बात की गवाही देती है।
बताते चलें मढिया घाट धाम से हिन्दुओं की आस्था जुड़ी है। पारसनाथ ऋषिकुल ब्रम्हचर्य आश्रम मढिया घाट एक ट्रस्ट के तहत आता है, जिसमे करोड़ों रुपए की सम्पति है। संस्कृत विद्यालय, गौशाला, हजारों बीघे जमीन, जिसमें कुछ हिस्से में खेती कार्य भी होता है। मैगलगंज राष्ट्रीय राज मार्ग पर सिद्धेश्वरी देवी मंदिर, जिसमें 55 दुकाने जो किराये पर चल रही है। इतना सब कुछ होने के बाद भी हिंदुओं के आस्था का केंद्र अपनी दुर्दशा पर खून के आंसू रो रहा है। बता दे संस्था के संस्थापक नरायन स्वामी के ब्रम्हलीन होने के बाद उपरांत इस संस्था पर स्वार्थी तत्वों की गिद्ध नजर मंडराने लगी। तबसे अभी तक मंडरा ही रही है। कभी भी किसी ने इस संस्था का भला नहीं सोचा। इस संस्था जब से विवादों का रिश्ता हुआ। विवादों की जड़े मजबूत होती गई। एक बार तो जिलाधिकारी ने विवादों के चलते उक्त संस्था का अधिग्रहण कर यह तहसीलदार को रिसीवर नियुक्त कर दिया, लेकिन परिणाम वही ढाक के तजन पात। जिसे भी मौका मिला, उसने बहती गंगा में हाथ-धोने में विलम्ब नहीं किया। आज स्थित यहां है कि उक्त संस्था की घोर उपेक्षा के चलते आस्था का केंद्र मढिया घाट धाम जैसे पहले था। वैसा आज भी सावन के पावन माह में श्रद्धलुओं को मढिया घाट पहंुचने में ही तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। मैगलगंज से मढिया तक का मार्ग जानलेवा गड्ढों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। जिसके चलते जलभराव की समस्या बनी रती है। हालांकि तहसील प्रशासन ने कामचलाऊ प्रयास कर गड्डों को पाटने का काम तो किया लेकिन पानी निकास की समुचित व्यवस्था नहीं करा पाई। इसी मार्ग से जलाभिषेक के लिये हजारों की संख्या में कांवरिया निकलते है।