ललितपुर

जानिए क्या है अक्षय तृतीया पर्व का महत्व, इसी से ही शुरु हुई आहारदान की परंपरा जानें कैसे

भारतीय संस्कृति में वैशाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है।
जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है।

ललितपुरMay 07, 2019 / 11:48 am

Neeraj Patel

जानिए क्या है अक्षय तृतीया पर्व का महत्व, इसी से ही शुरु हुई आहारदान की परंपरा जानें कैसे

ललितपुर. भारतीय संस्कृति में वैशाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है। इसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोग भूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोग भूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं। उसमें कल्पवृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्म भूमि युग में कल्प वृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीव को कृषि आदि पर निर्भर रहकर कार्य करने पड़ते हैं।

भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। उन्होंने लोगों को कृषि और षट् कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दी। इसलिए उन्हें आदिपुरुष व युग प्रवर्तक कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा 6 महीने का उपवास लेकर तपस्या की। 6 माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था। जिसके कारण उन्हें और 6 महीने तक निराहार रहना पड़ा।

वैशाख शुक्ल तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वपन दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि को आहार देने की चर्या का स्मरण हो गया। तत्पश्चात हस्तिनापुर पहुंचे मुनि आदिनाथ को उन्होंने प्रथम आहार इक्षु रस (गन्ने का रस) का दिया। जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है और जैन श्रावक इस दिन इक्षु रस का दान भी करते हैं।

अक्षय तृतीया जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है। इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारणा की थी। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया।जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।

भगवान आदिनाथ ने लगभग 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारणा की थी।यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी। अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है। आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रतिवर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारणा कर पूर्ण की जाती है। तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है। इस प्रकार का वर्षीतप करीबन तेरह मास और दस दिन का हो जाता है। उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है।

अक्षय तृतीया – ( दान तीर्थ का पर्व )

प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। इसके प्राचीनत्व के मूल में कारण है क्योंकि यह पर्व आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से सम्बन्धित है जो कि स्वयं ही इसके करोड़ों वर्ष प्राचीनता का प्रमाण है। प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव दीक्षोपरान्त मुनिमुद्रा धारण कर छः माह मौन साधना करने के बाद प्रथम आहारचर्या हेतु निकले। यहां ध्यातव्य है कि तीर्थकर क्षुधा वेदना को शान्त करने के लिये आहार को नहीं निकलते, अपितु लोक में आहार दान अथवा दानतीर्थ परम्परा का उपदेश देने के निमित्त से आहारचर्या हेतु निकलते है।

तदनुसार भगवान ऋषभदेव के समय चूंकि आहारदान परम्परा प्रचलित नहीं थी। अतः पड़गाहन की उचित विधि के अभाव होने से वे सात माह तक निराहार रहे। एक बार वे आहारचर्या हेतु हस्तिनापुर पधारे। उन्हें देखते ही राजा श्रेयांस को पूर्वभवस्मरण हो गया, जहां उन्होंने मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहारदान दिया था। तत्पश्चात उन्होंने भगवान ऋषभदेव से श्रद्धा विनय आदि गुणों से परिपूर्ण होकर हे भगवन्! तिष्ठ! तिष्ठ! यह कहकर पड़गाहन कर, उच्चासन पर विराजमान कर, उनके चरण कमल धोकर, पूजन करके मन वचन काय से नमोस्तु किया। तत्पश्चात इक्षुरस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष तथा धूम, अंगार, प्रणाम और संयोजन इन चार दाता सम्बन्धित दोषों से रहित एवं प्रासुक है, अतः आप इसे ग्रहण कीजिए। तदनन्तर भगवान ऋषभदेव ने चारित्र की वृद्धि तथा दानतीर्थ के प्रवर्तन हेतु पारणा की। प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरतचक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिशय सम्मान किया।

भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ। पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस “दानतीर्थ प्रवर्तक“ की उपाधि से विख्यात हुए। दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है। जिस दिन भगवान ऋषभदेव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। भगवान की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण (कभी खत्म ना होने वाला, “अक्षय“) हो गया था। अतः आज भी यह तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक में प्रसिद्ध है।

ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करता है। कुछ नीतिकारों का ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षय पुण्य प्राप्त किया था। अतः यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है, वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है।

अक्षय तृतीया पर्व का महत्व

अक्षय तृतीया को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक के विचार के ही विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त आदिक भी करके गौरव मानते है।उनका विश्वास है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है। अतः यह अक्षय तृतीया पर अत्यन्त गौरवशाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दानतीर्थ का प्रवर्तन कर हम सभी पर किये गये उपकार का स्मरण कराता है।जैन धर्म में अक्षय तृतीया के पर्व को बडे ही उत्साह पूर्वक मनाया जाता है।

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