अब शक्ल नहीं लगा है होलिका दहन का दायरा- वर्तमान परिवेश में होलिका दहन कार्यक्रम का दायरा अब पढ़ने लगा है। इसका सबसे बड़ा कारण है लोगों के दिलों में घटता त्योहारों के प्रति विश्वास और पाश्चात्य संस्कृति, जिसके बढ़ते प्रादुर्भाव के चलते साल दर साल भारतीय संस्कृति के पर्वों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। इस वर्ष होली पर्व पर कहीं भी रौनक दिखायी नहीं दी। अधिकांश होली गढ़ों पर प्रतीक के तौर पर होलिका दहन हुआ। प्राचीन परम्परा के अनुसार होली गढ़ों से ली जाने वाली आग से ही घरों के चूल्हे जला करते थे, लेकिन पर्वों के सिकुड़ते दायरे से प्राचीन परम्पराएं भी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं।
होली के पर्व पर यह है किवदंती- होली पर्व को मनाने की पीछे भक्त की किवदंती जुड़ी हुई है। बताया जाता है कि भक्त प्रहलाद का पिता हिरणाकश्यप नास्तिक था, जो अपने पुत्र की ईश भक्ति से क्रोधित रहता था। उसने एक दिन अपने पुत्र को मरवाने के लिए अपनी बहिन होलिका की गोदी में बैठा कर आग के हवाले कर दिया। कहा जाता है कि होलिका तो आग में जलकर भस्म हो गयी, लेकिन भक्त प्रहलाद का कुछ नहीं बिगड़ा। तब से होलिका दहन किए जाने की परम्परा शुरू हुई। हालांकि रंगों की होली के पीछे कृष्ण भक्ति का रहस्य भी छिपा हुआ है। इस पर्व के मनाने के पीछे का कारण जो भी हों, लेकिन यह पर्व आपसी भाई चारे के साथ-साथ बुन्देली लोक संस्कृति का प्रतीक बन गया था।
इस पर्व पर हुरियारे बुन्देली परम्परा के अनुसार कीचड़, गोबर की होली खेलने के साथ-साथ ढिमरियाई, फाग आदि बुन्देली लोक गीतों का गायन करते थे। भांग के नशे में मस्त हुरियारों की गोटें देर रात तक जमी रहती थीं, लेकिन जैसे-जैसे पाश्चात संस्कृति का प्रादुर्भाव बढ़ता जा रहा वैसे-वैसे यह प्राचीन परम्परायें विलुप्त होती जा रहीं। पहले होली पर्व पर इन स्थानों पर सबसे ऊंची होली जलाने की होड़ मची रहती थी तथा युवक एक माह पूर्व से ही पर्व की तैयारियों में जुट जाया करते थे। इसी होली की आग से घरों के चूल्हे जलाने की परम्परा थी। लेकिन भारतीय संस्कृति के सिकुड़ते दायरे से अब यह सब परम्परायें विलुप्त होती जा रहीं। कुछ स्थानों पर तो आज ही धन एकत्रित कर बाजार से जलाऊ लकड़ी खरीद कर प्रतीकात्मक होलिका का दहन किया गया। एक तरफ जहां युवा पीढ़ी वैलेनटाईन डे पर्व पर हजारों रुपए के बुके खरीद कर अपने प्रेम का इजहार करने लगे हैं वहीं आपसी भाई चारे के प्रतीक भारतीय संस्कृति के इस पर्व को मनाने में अब उनकी कोई रुचि दिखाई नहीं दे रही। यही वजह है कि नगर के प्रमुख बाजारों में सजी रंगों व पिचकारियों की दुकानों पर सिर्फ बच्चे ही खरीददारी करते दिखाई दिए। जिन्हें होली का मतलब सिर्फ रंग खेलने से है। सायं तक अधिकांश होली गढ़ाओं में कहीं भी होलिका का अस्तित्व दिखाई नहीं दे रहा था। बाद में वहां झाड़ झंकार व लकड़ी रखवा दी गई थी तथा पूजा अर्चना के पश्चात विधिवत होलिका का दहन हुआ। जिले में यह पहली बार देखने को मिला कि जब होली पर्व पर हुरियारों ने चंदा उगाने के लिए घरों में दस्तक नहीं दी और न ही उनमें होली की लपटें ऊंची उठाने की होड़ मची। पहले जिले में होली पर्व को मनाने के लिए युवाओं की टोलियां कई दिन पूर्व से ही सक्रिय हो जाती थीं। जंगलों से लकड़ी काटने के अलावा पर्व को मनाने के लिए हुरियारे गलियों में चंदा एकत्रित करने निकल पड़ते थे। बोल दो रे लरका होरी है की आवाजें सुनकर नागरिक चंदा देने को विवश हो जाते थे और जो व्यक्ति चंदा देने से इन्कार कर देता था उसे उसका खामियाजा भुगतना पड़ता था, लेकिन हुरियारों की टोलियां अब नदारत हैं। उनमें पर्व मनाने का कोई उत्साह नहीं रहा। उनकी रुचि अब भारतीय संस्कृति के पर्वों में नहीं बल्कि टी.वी.व पाश्चात संस्कृति के पर्वों को मनाने में ज्यादा हो गई है। बाजार में रंगों व पिचकारियों की दुकानें सजी रहीं। एक से बढ़ कर एक पिचकारियों को देख कर बच्चे खरीदवाने की जिद भी करते रहे लेकिन उनके अभिभावकों की जेब खरीददारी की इजाजत नहीं दे रही थी। यही नहीं महंगाई का असर पर्व पर बनने वाले पकवानों पर भी दिखायी दिया। होली पर्व पर बनने वाली परम्परागत गुजिया, पपडिय़ां, खुर्मी जैसे पकवानों का जायका भी महंगाई ने बिगाड़ दिया है। लोगों ने प्रतीक के तौर पर बाजार से मिष्ठïान खरीद कर पर्व पर मुंह मीठा किया।
महिलाओं ने किया होलिका पूजन- नजाई बाजार में अग्रवाल समाज की महिलाओं द्वारा होलिका पूजन किया गया। संगीता अग्रवाल ने बताया कि प्रहलाद रूपी धर्म की रक्षा के लिए होलिका पूजन करते हैं। इस अवसर पर सुनीला अग्रवाल, सुलोचना अग्रवाल, मधु अग्रवाल, मीरा अग्रवाल, संतोष अग्रवाल, पुष्पा अग्रवाल, संगीता अग्रवाल, ऋचा अग्रवाल, श्वेता अग्रवाल, शकुन अग्रवाल, मंजू अग्रवाल, पल्लवी, स्वाति, रीता, शिखाआदि सम्मलित रहीं।