मानव संसाधनों व खर्च की नहीं होगी बर्बादी- देखा जाए तो एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे होंगे। लगातार चुनावों के चलते सरकारी योजनाएं अधर में चली जाती हैं और सामान्य जन-जीवन प्रभावित हो जाता है। वहीं न ही इससे केवल जरूरी सेवाएं प्रभावित होती हैं, बल्कि चुनावी ड्यूटी में ह्यूमन रिसोर्स भी बर्बाद होता है। लेकिन एक साथ चुनाव कराने से इस पर लगाम लग सकती है।वहीं चुनावी खर्चों में भरी कमी आएगी। साथ ही इससे हुई बचत का इस्तेमाल दूसरी योजनाओं में किया जा सकेगा।सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट की माने, 2014 लोकसभा चुनाव में अघोषित तौर पर 30,000 करोड़ रूपए खर्च आया था। तो वहीं चुनाव आयोग की मानें तो सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों पर करीब 4,500 करोड़ रूपए खर्च हुए। केंद्र का यह कहना है कि यदि अब सारे चुनाव एक साथ हुए तो केवल 4,500 करोड़ रूपए का खर्च आएगा।
बढ़ेगा तालमेल और होगी अधिक भागीदारी-
यह भी कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने से जनता की भागीदारी बढ़ेगी क्योंकि देश में एक बड़ा तबका है, जो रोजगार के लिए दूसरे शहर रहने लगता है और अपने मूल निवास को छोड़ देता है, लेकि अगर एक बार चुनाव होगा तो यह आबादी वोट डालने अपने मूल निवास पर आ जाएगी।
यह भी कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने से जनता की भागीदारी बढ़ेगी क्योंकि देश में एक बड़ा तबका है, जो रोजगार के लिए दूसरे शहर रहने लगता है और अपने मूल निवास को छोड़ देता है, लेकि अगर एक बार चुनाव होगा तो यह आबादी वोट डालने अपने मूल निवास पर आ जाएगी।
बनी रहेगी राजनीतिक स्थिरता- आम चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में यह भी वजह बताई जा रही है कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी। वो ऐसे कि सरकार बनने के बाद अगर किसी वजह से वह गिर जाती है, तो एक तय समय के बाद ही चुनाव होंगे। इसके अलावा अगर किसी को बहुमत नहीं मिल पात है, तो भी यह तय रहेगा कि अगला चुनाव एक तय समय के बाद ही होगा। इससे राजनीतिक स्थिरता बनी रह सकती है।
नेताओं की जवाबदेही हो जाएगी खत्म-
अब अगल एक साथ चुनाव करने के फायदे हैं, तो नुकसान भी हैं। ये तो ज्यादातर देखा जाता है कि चुनाव के बाद नेता गायब हो जाते हैं। दरअसल बार-बार चुनाव होने से उन्हें जनता के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता है और इससे उनकी जवाबदेही बढ़ जाती है। वहीं एक साथ चुनाव होने पर उनकी जवाबदेही घट जाएगी।
अब अगल एक साथ चुनाव करने के फायदे हैं, तो नुकसान भी हैं। ये तो ज्यादातर देखा जाता है कि चुनाव के बाद नेता गायब हो जाते हैं। दरअसल बार-बार चुनाव होने से उन्हें जनता के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता है और इससे उनकी जवाबदेही बढ़ जाती है। वहीं एक साथ चुनाव होने पर उनकी जवाबदेही घट जाएगी।
क्षेत्रीय मुद्दे हो जाएंगे गुम- सबसे बड़ा नुकसान तो यही है। ऐसे चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर भारी पड़ेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनावों के दौरान देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को लेकर मैदान में उतरेंगीं, जिससे महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मुद्दे कहीं गुम हो जाएंगे। इसी के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा। वो इसलिए क्योंकि चुनाव फतह करने के लिए बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां भारी पैमाने पर संसाधन झोकेंगे, इन संसाधनों का मुकाबला करना क्षेत्रीय दलों के लिए मुश्किल होगा। यहीं नहीं इससे क्षेत्रीय मुद्दों के साथ दल समाप्त होते जाएंगे वहीं क्षेत्रीय समस्याओं को उठाना और उनका समाधान करना भी मुश्किल हो जाएगा।
एक व्यक्ति पर ही केंद्रित हो जाएगा चुनाव- एक खतरा यह भी है कि एक इससे केवल एक व्यक्ति के आसपास ही चुनाव केन्द्रित हो जाएगा, जिससे मतदाता उस पार्टी को ही वोट करेगा, जिसके प्रधानमंत्री को वह कुर्सी पर देखना चाहेंगे, भले ही दूसरी पार्टी उसके क्षेत्र के विकास के लिए पहली पार्टी से ज्यादा अच्छे वादे कर रही हो।
तो ये तो थे लोकसभा व विधान सभा चुनाव एक साथ कराने के फायदे व नुकसान। इस पर अभी भी बहस चल रही है। चुनाव आयोग पहले ही कह चुका है कि वह एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। और अगर दूसरे दलों में इसके पक्ष में सर्वसम्मति बनती है, तो संविधान में इसके लिए कई परिवर्तन करने पड़ेंगे।