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कौन करेगा भरपाई, बाप – बेटे के झगड़े में लुटी सारी कमाई

locationलखनऊPublished: Jan 16, 2017 02:41:00 pm

Submitted by:

Madhukar Mishra

समाजवादी महाभारत के चलते बर्बाद हुए ये लोग आखिर किसको कोस रहे हैं

mulaym akhilesh

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— मधुकर मिश्र

लखनऊ। विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित समाजवादी पार्टी कार्यालय के सामने बैनर—पोस्टर और झंडे बेचने वाली दुकानों में सन्नाटा पसरा हुआ है। चुनाव के दिनों में जहां इनके पास सांस लेने की फुर्सत नहीं हुआ करती थी, वहीं आज इनकी दुकान में मक्खी भी नहीं मंडरा रही है। चुनाव की घोषणा हुए कई दिन बीत गए हैं और हाथ पर हाथ धरे इन दुकानदारों के बोहनी तक नहीं हुई है। नोटबंदी के बाद समाजवादी महाभारत के चलते आखिर कैसे रोजी—रोटी को मोहताज हुए ये दुकानदार, खुलासा करती रिपोर्ट:

दुकानदार हुए मायूस
1997 से चुनाव प्रचार सामग्री बेच रहे शशि सक्सेना बड़े ही निराश मन से बताते हैं कि चुनावों के समय यहां पर 24 घंटे काम चलता था। लोगों की भीड़ के बीच दिन रात काम करते—करते उनकी आंखे सूज जाया करती थीं। लोग आधी रात आते, समान लेते और चले जाते थे। फोन पर ही आर्डर बुक होकर रातों—रात प्रत्याशियों के क्षेत्र में भिजवा दिया जाता था, लेकिन तस्वीर बदली हुई है। टकटकी लगाए दुकानदार सपा के भीतर मचे घमासान खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं। उनका कहना है कि चुनाव के समय जहां एक दुकान में जहां आठ—दस लोग कम पड़ते थे, वहां अकेला खाली बैठा व्यक्ति सिर्फ यही मना रहा है कि किसी तरह से अखिलेश और मुलायम के बीच समझौता हो जाए।

कलह ने खत्म किया करोड़ों का कारोबार
आचार संहिता लगने के बाद अब तक का यह पहला चुनाव है जो दुकानदारों के लिए सूखा साबित हो रहा है। ये नोटबंदी के दर्द से भी नहीं उबर पाए थे कि समाजवादी महाभारत ने इनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। तमाम आर्डर तैयार होने के बावजूद अटक गए। कितनों ने टिकट बंटवारे के पहले ही ताल ठोकते हुए अपने झंडे—बैनर की बुकिंग करवा माल तैयार करवा लिया था। अब कई बार मिन्नते करने के बाद भी वह अपना आर्डर लेने नहीं आ रहे हैं। नतीजतन, उधार के पैसों से प्रचार सामग्री का व्यापार कर रहे इन लोगों की गाढ़ी कमाई बाप—बेटे के बीच चल रही नूराकुश्ती में दब गई।

कहां से आए कैश
चुनाव प्रचार का धंधा पूरी तरह से उधारी और विश्वास पर चलता रहा है। नेतागण हारने के बाद भी बकाया राशि दे जाया करते थे, लेकिन नोटबंदी के बाद इस बार स्थिति कुछ अलग नजर आ रही है। दुकानदार भी प्रत्याशियों की इस मजबूरी को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि पीछे के रास्ते से चुनावों में लगने वाला कैश अब नहीं फ्लो हो रहा है। प्रचार समाग्री लेने वाला कच्चे की बजाए पक्के पर्चे की डिमांड कर रहा है। चुनावी घड़ी में बरती जा रही सख्ती के चलते प्रत्याशियों पर खर्च होने वाला पैसा भी एक जगह से दूसरी जगह पर नहीं पहुंच पा रहा है। नतीजतन नगद देने वाले के साथ भी दिक्कत है और लेने वाले के साथ भी दिक्कत है।

सिंबल ने पहुंचाया सड़क पर
दुकानों में जमा चुनाव प्रचार सामग्री का ढेर दिखाते हुए गुड्डू कहते हैं कि जब पूरा गांव जल जाता है तो उतना कष्ट नहीं होता जितना कि केवल खुद का घर जलने से होता है। इस समय हम सभी एक ही पीड़ा से गुजर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में एकदूसरे को सांत्वना देने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। दुकानदार शशी सक्सेना के अनुसार चनाव चिन्ह बदलते ही पहले से बना सारा माल बर्बाद हो जाएगा। जबकि नए माल को बनाने में सप्ताह भर से ज्यादा का समय लगेगा। उसके लिए भी पूंजी कहां से आएगी इस यक्ष प्रशन का जवाब उन्हें ढूढ़े नहीं मिल रहा है। एक आंकलन के अनुसार नोटबंदी के बाद प्रचार सामग्री का कारोबार 75 प्रतिशत कम काम हुआ है।

एक गांव के हैं सभी दुकानदार
ये सभी दुकाने सीतापुर के सुपौली विधानसभा में पड़ने वाले देवरिया गांव के लोगों की हैं। कभी यहां पर इनके परिवार का एक सदस्य साइकिल पर चुनाव प्रचार सामग्री लेकर बेचने आया करता था। धीरे—धीरे उनका यहां पर कुनबा बस गया। आज इस परिवार के सदस्यों की यहां पर कई दुकाने हैं और उनका कारोबार करोड़ों में होता है।

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