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बुद्ध पूर्णिमा बुद्धत्व की प्रक्रिया का प्रारंभ भी और शिखर तक पहुंचना भी

locationलखनऊPublished: Apr 30, 2018 02:31:21 pm

Submitted by:

Ruchi Sharma

Buddha Purnima 2018 : बुद्ध पूर्णिमा बुद्धत्व की प्रक्रिया का प्रारंभ भी और शिखर तक पहुंचना भी: वृषभ प्रसाद जैन

buddha purnima
वृषभ प्रसाद जैन

बुद्धत्व की, बोध की, बोधि की पूर्णता ही बुद्ध पूर्णिमा है । यह पूर्णिमा इस लोक में ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी में घटना के रूप में घटती है वैशाख मास के पूर्णिमा के दिन। जिस माह में विशाखा नक्षत्र की प्रधानता होती है, वह वैशाख कहलाता है। विशाखा के नामकरण के पीछे विचार है कि जब विचार की, आदिम बोधि रूप वृक्ष की, काल के प्रवाह की शाखाएँ कोई विशेष रूप लेती हैं, तब विशाखा प्रकट होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार चैत्र मास और बसंत ऋतु में वर्ष का प्रारंभ होता है एवं फाल्गुन शिशिर के अंत में वर्ष की समाप्ति। अभी-अभी वर्ष का प्रारंभ हुआ ही होता है और बसंत आकर गया होता है, तब ग्रीष्म जन्म लेता है, बस, वैसे ही वैशाखी पूर्णिमा सम्मुख उपस्थित हो जाती है। यह वैशाखी पूर्णिमा ही बुद्ध पूर्णिमा है, क्योंकि यह काल की दृष्टि से आधार बनती है बुद्ध के बोधि की भी । इसी क्रम में वैशाख मास महत्वपूर्ण बन जाता है, क्योंकि इसी माह में पड़ने वाली वैशाखी पूर्णिमा को बुद्धत्व रूप शाखा का उदय होता है और उसी दिन वह शाखा अपने चरम एवं परम रूप को पा लेती है। ज्ञान के प्रस्फुरण, बुद्धि के जागरण और बुद्धत्व इन तीनों को विविध प्रतीकों यथा– बुद्ध जयंती, ज्ञान लाभ अर्थात् संबोधि की प्राप्ति व महापरिनिर्वाण के रूप में अपने में समेटने वाली है यह बुद्ध पूर्णिमा। बुद्ध का जन्म ज्ञान के प्रारंभ का और महापरिनिर्वाण प्रतीक है चरम पद की प्राप्ति का, इसीलिए बुद्ध पूर्णिमा इस बुद्धत्व की प्रक्रिया का प्रारंभ भी है और शिखर तक पहुँचना भी।
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ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में बुद्ध का जन्म बुद्ध पूर्णिमा के दिन होना एक सामान्य घटना नहीं है, यह सूचना है ब्राह्मण धर्म से पृथक् या हटकर या आगे बढ़कर या जुड़ते हुए श्रमण धर्म रूप नई शाखा के उदय की, जिसकी सूचना महर्षि पतंजलि अपने महाभाष्य में “येषां विरोधः शाश्वतिक:” के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत “ब्राह्मण-श्रमणम्” पद से देते हैं। बात इतनी ही नहीं, यह सूचना है वैदिक धर्म के प्रवृत्तिमार्गी पथ से आगे बढ़कर निवृत्तिमार्गी राह के चुने जाने की, वैदिक जनों के स्थान पर जानपदों के रचे जाने की, इसीलिए छठी शताब्दी के प्रारंभ को 16 महाजनपदों का युग कहा गया। यह सूचना है ब्राह्मण और श्रमण दोनों परंपराओं के आगम स्वातंत्र्य की स्थापना की।….. पर इसका मतलब यह भी नहीं लिया जाना चाहिए कि ये दोनों परंपराएँ कहीं न कहीं भारत के बाहर के किसी मूल सूत्र से जुड़ी हुई हैं, बल्कि तथ्य तो यह है कि ये दोनों परंपराएँ भारत में ही प्रस्फुटित हुईं, साथ-साथ चलते व बढ़ते हुए विकसित हुईं और फिर आगे चलकर पोषित होती गयीं। ….और आगे बढ़ें तो यह सूचना है वेदों और उपनिषदों में गुँथे हुए ईश्वर कर्तृत्व रूप जगत् के संचालन से पृथक् स्व-कर्म और स्व-श्रम के द्वारा जन्म-जन्मांतरों में भी होने वाले सृष्टि के नियंत्रणात्मक बदलाव की और तब यहीं आरंभ करते हैं भगवान बुद्ध अपने वैचारिक धर्म-चक्र के प्रवर्तन को और इसीलिए बुद्ध किसी के उपदेश से बुद्ध नहीं बनते और नहीं कहलाते बोधित-बुद्ध, बल्कि वे तो बनते हैं स्वयं बुद्ध, स्वयं की साधना के आधार पर जागृत होने वाले परम बुद्ध, स्वयं बुद्ध।

भगवान बुद्ध को प्राचीन भारतीय संदर्भों में विचारशील के साथ-साथ ध्यानशील, एकांतप्रिय, मौन साधक माना गया है। विचारशीलता में निरंतर विचारों का प्रवाह है अर्थात् विचारों में निरंतर यथार्थ में होने वाली घटनाओं के प्रति संवेदनशील होकर विचार करते हुए बहते रहना है और ध्यानशीलता में एक विचार पर एकाग्र होने की, दृढ़ होने की, अडिग होकर खड़े होने की बात है। दिखने में ये दोनों प्रतिगामी या विरोधी दिखते हैं, पर भगवान बुद्ध में ये दोनों रूप निरंतर पूरक होकर रहे हैं। बुद्ध विचार में ये दोनों पूरक न हुए होते, तो भला कैसे शून्यवाद जन्म लेता, कैसे विज्ञानवाद प्रकट हुआ होता और इसी क्रम में कैसे अन्य बौद्ध विचार जनमते?… उनकी दया, करुणा और बुद्धि-स्वातंत्र्य का उनका चिंतन विश्व प्रसिद्ध है। वे अंध-श्रद्धा के कट्टर ही नहीं, परम विरोधी थे और प्रत्यात्मवेदनीय सत्य के उपदेष्टा थे। स्वयं अपने अनुभव के द्वारा जिस सत्य का साक्षात्कार किया जा सके, वह सत्य ही प्रत्यात्म वेदनीय सत्य है। उनकी देशना में जातिवाद और कर्मकांड को कोई स्थान नहीं था। विद्या और आचरण की शुद्धि से संपन्न व्यक्ति को ही वे सच्चा ब्राह्मण मानते थे। पर-सेवा को ही पारमार्थिक अर्चन और आभ्यंतरिक ज्योति को ही वास्तविक अग्नि मानते थे, इसीलिए तो उनकी परंपरा में “अप्प दीपो भव” का विचार पल्लवित हुआ और इस प्रकार उनकी देशना समाज के सभी वर्गों के लिए ग्राह्य बनी और उनकी बौद्धिकता, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता रूप त्रिगुणात्मक प्रगति ने विचार और आचरण के शोधन के क्रम में एक नया चरण व मानक स्थापित किया। इसलिए उन्हें प्रणाम, उनके बोधिसत्व रूप को प्रणाम और प्रणाम उनके श्रम-मार्ग को।
(लेखक- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर हैं)

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