ऐसे शुरू हुई कहानी- 1857 में आलम बेग ईस्ट इंडिया कंपनी की 46वीं बंगाल नेटिव इनफेंट्री का सिपाही थे। तब वह सियालपुर (वर्तमान में पाकिस्तान) में तैनात थे। आपको बता दें कि 46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश व बिहार से थे। उत्तर भारत से विद्रोह की चिंगारियां जब वहां पहुंची तो आलम बेग और उनकी कंपनी भी अछूती नहीं रही। उसने वहां तैनात यूरोपियनों पर हमले किए। 9 जुलाई 1857 को उन्होंने एक स्कॉटिश परिवार के साथ सात यूरोपियनों को मार डाला।
आलम बेग व उनके साथी तिब्बत सीमा की तरफ भागे, लेकिन वहां तैनात गार्डों को देखकर पलटे और पंजाब के माधौपुर से पकड़े गए। अगले साल उन्होंने स्कॉटिश परिवार को मारने की कोशिश की। नतीजतन, तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिए गए। इसके पहले सैनिकों के सिर को आततायी अंग्रेजों ने काट लिया। इसके बाद बगावत थम चुकी थी।
आलम बेग की त्रासद कहानी- आलम बेग की त्रासद कहानी एक सदी के बाद आइरिश कैप्टेन आर्थर रॉबर्ट कॉस्टेलो के जरिये सामने आई, जिन्होंने मौत के मंजर को अपनी आंखो से देखा था। वे 7वीं ड्रेगन गार्ड के कैप्टन थे जिसे विद्रोह के मद्देनजर भारत भेजा गया था। बकौल, इतिहासकार किम वेगनर, कॉस्टेलो ने विद्रोह तो नहीं देखा, लेकिन सिपाहियों को मौत के घाट उतारने का मंजर देखा था।
इतिहासकार किम वेगनर ने खोला राज- 2014 में पब के मालिकों ने सालों तक दक्षिण एशिया पर लिखने वाले इतिहासकार किम वेगनर से संपर्क किया और खोपड़ी को उसके उत्तराधिकारियों तक पहुंचाने का आग्रह किया। वेगनर इसे घर ले गए। इस मामले में उनके शोध पर आधारित पुस्तक “आलम बेग की खोपड़ी- 1857 के विद्रोही का जीवन और मौत” पिछले साल प्रकाशित हुई है। वे मानते हैं कि लोगों को जानकारी देकर ही आलम बेग की खोपड़ी को उनके वतन पहुंचाया जा सकता है।
अंग्रेज की क्रूर मानसिकता उजागर-
धड़ से सिर को अलग कर देना आमतौर पर आदिम जनजातियों और समकालीन आतंकवादियों की घिनौनी हरकतों में शामिल होती है, लेकिन भारत के औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय सैनिकों की खिपड़यों को युद्ध में ट्रॉफी के रूप में इकट्ठा करत थे। सिपाही आलमबेग का ऐसा ही 160 साल पुराना खोपड़ी का कंकाल अब लंदन के एक इतिहासकार के कब्जे में है। यह इस बात का सबूत है कि जो अंग्रेज भारत में कई आधुनिक विचार लेकर आए, वे भी एक समय में बेहद अमानवीय थे।
धड़ से सिर को अलग कर देना आमतौर पर आदिम जनजातियों और समकालीन आतंकवादियों की घिनौनी हरकतों में शामिल होती है, लेकिन भारत के औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय सैनिकों की खिपड़यों को युद्ध में ट्रॉफी के रूप में इकट्ठा करत थे। सिपाही आलमबेग का ऐसा ही 160 साल पुराना खोपड़ी का कंकाल अब लंदन के एक इतिहासकार के कब्जे में है। यह इस बात का सबूत है कि जो अंग्रेज भारत में कई आधुनिक विचार लेकर आए, वे भी एक समय में बेहद अमानवीय थे।
46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश से- वेगनर के अध्ययन से पता चलता है कि 46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश व बिहार से थे। हवलदार आलम उत्तर प्रदेश के हो सकता हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने तो इंफेट्री के सिपाहियों का कोई रिकार्ड ही नहीं छोड़ा। यह संयोग है कि वर्ष 2014 में जब वेगनर यह किताब लिख रहे थे तब पंजाब के अजनाला में बगावत में शहीद 282 सिपाहियों के कंकाल मिल रहे थे। ये लोग आत्मसमर्पण करना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने इन्हें मौत के घाट उतारने का आदेश दिया था। इन्हें इनके मैडलों के साथ ही दफना दिया गया था। यहां तक कि उनके जेबों में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दिए गए पैसे तक रखे थे। आलम बेग की यह कहानी तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि उनके परिजनों का पता नहीं चलता।
बहरहाल भारत के एक अंग्रेजी अखबार ने हाल ही में इस खोपड़ी के रहस्य के बारे में एक रोचक खबर लिखी है। उसके बाद से यह खबर वायरल हो रही है। पत्रकार शिवकुमार विवेक जैसे अनेक लोगों ने अपनी फेसबुक वॉल पर इस कहनी का हिंदी तर्जुमा पेश किया है ताकि खोपड़ी के सही वारिस की पहचान हो सके।
(शिवकुमार विवेक की फेसबुक वाल से)