script160 साल से भारत लौटने के इंतजार में इस शहीद का शीश | Freedom Fighter from Uttar Pradesh Alam Beg skull in London Pub | Patrika News

160 साल से भारत लौटने के इंतजार में इस शहीद का शीश

locationलखनऊPublished: Feb 10, 2018 03:56:55 pm

Submitted by:

Abhishek Gupta

इस बहादुर सिपाही का नाम है आलम बेग।

Alam Beg Skull

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लखनऊ. यह है उत्तर प्रदेश के जांबाज सिपाही की खोपड़ी। इसे पहचान लीजिए। हो सकता है ये आपके अपने हों। इस खोपड़ी को वतन वापसी का इंतजार है। 1857 में आजादी की जंग में इस सिपाही को शहादत देनी पड़ी थी। आजादी की बगावत के आरोप में अंग्रेज इस बहादुर सिपाही के सिर को काट ले गए थे। इस बहादुर सिपाही का नाम है आलम बेग। 160 साल पुरानी यह घटना लंदन के इतिहासकार किम वेगनर की वजह से इन दिनों चर्चा में है। किम वेगनर को इस बहादुर सिपाही की खोपड़ी का कंकाल एक पब में मिला. कंकाल में रखे एक पर्चे से सिपाही आलम बेग की पहचान उजागर हुई।
ऐसे शुरू हुई कहानी-

1857 में आलम बेग ईस्ट इंडिया कंपनी की 46वीं बंगाल नेटिव इनफेंट्री का सिपाही थे। तब वह सियालपुर (वर्तमान में पाकिस्तान) में तैनात थे। आपको बता दें कि 46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश व बिहार से थे। उत्तर भारत से विद्रोह की चिंगारियां जब वहां पहुंची तो आलम बेग और उनकी कंपनी भी अछूती नहीं रही। उसने वहां तैनात यूरोपियनों पर हमले किए। 9 जुलाई 1857 को उन्होंने एक स्कॉटिश परिवार के साथ सात यूरोपियनों को मार डाला।
आलम बेग व उनके साथी तिब्बत सीमा की तरफ भागे, लेकिन वहां तैनात गार्डों को देखकर पलटे और पंजाब के माधौपुर से पकड़े गए। अगले साल उन्होंने स्कॉटिश परिवार को मारने की कोशिश की। नतीजतन, तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिए गए। इसके पहले सैनिकों के सिर को आततायी अंग्रेजों ने काट लिया। इसके बाद बगावत थम चुकी थी।
आलम बेग की त्रासद कहानी-

आलम बेग की त्रासद कहानी एक सदी के बाद आइरिश कैप्टेन आर्थर रॉबर्ट कॉस्टेलो के जरिये सामने आई, जिन्होंने मौत के मंजर को अपनी आंखो से देखा था। वे 7वीं ड्रेगन गार्ड के कैप्टन थे जिसे विद्रोह के मद्देनजर भारत भेजा गया था। बकौल, इतिहासकार किम वेगनर, कॉस्टेलो ने विद्रोह तो नहीं देखा, लेकिन सिपाहियों को मौत के घाट उतारने का मंजर देखा था।
Alam Beg Skull
Alam Beg Skull IMAGE CREDIT: Patrika
इस तरह लंदन पहुंच गई आलम बेग की खोपड़ी-

कॉस्टेलो आलम के सिर को लंदन ले गए। 1963 में यह खोपड़ी लंदन के लॉर्ड क्लायड पब में तब मिली जब इसका मालिकाना हक हस्तांतरित हो गया। नए मालिक 1857 की इस कथित ट्रॉफी को पाकर खुश नहीं थे, सो उन्होंने इसे ब्रिटिश इतिहास के खराब दौर की निशानी मानकर रखा। उन्हें खोपड़ी की एक आंख के कोटर से नोट मिला जिससे पता चला कि यह कंकाल उस आलम बेग का है जिसने सियालकोट के विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनकी मंशा इसे सिपाही के परिवार को वापस करने की थी। उन्होंने इस दिशा में कोशिश भी की, लेकिन विफल हो गए। यह ज्ञात नहीं हो सका कि यह खोपड़ी विक्टोरिया युग के पब में कैसे पहुंची। संभव है कि या तो इसे लाने वाले आइरिश कैप्टन यहां आए होंगे या किसी न जमा करा दिया। पब भारत के उत्तर व उत्तर पूर्व में विद्रोह को कुचलने वाले कमांडर लार्ड क्लायड के नाम पर है।
इतिहासकार किम वेगनर ने खोला राज-

2014 में पब के मालिकों ने सालों तक दक्षिण एशिया पर लिखने वाले इतिहासकार किम वेगनर से संपर्क किया और खोपड़ी को उसके उत्तराधिकारियों तक पहुंचाने का आग्रह किया। वेगनर इसे घर ले गए। इस मामले में उनके शोध पर आधारित पुस्तक “आलम बेग की खोपड़ी- 1857 के विद्रोही का जीवन और मौत” पिछले साल प्रकाशित हुई है। वे मानते हैं कि लोगों को जानकारी देकर ही आलम बेग की खोपड़ी को उनके वतन पहुंचाया जा सकता है।
अंग्रेज की क्रूर मानसिकता उजागर-
धड़ से सिर को अलग कर देना आमतौर पर आदिम जनजातियों और समकालीन आतंकवादियों की घिनौनी हरकतों में शामिल होती है, लेकिन भारत के औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय सैनिकों की खिपड़यों को युद्ध में ट्रॉफी के रूप में इकट्ठा करत थे। सिपाही आलमबेग का ऐसा ही 160 साल पुराना खोपड़ी का कंकाल अब लंदन के एक इतिहासकार के कब्जे में है। यह इस बात का सबूत है कि जो अंग्रेज भारत में कई आधुनिक विचार लेकर आए, वे भी एक समय में बेहद अमानवीय थे।
46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश से-

वेगनर के अध्ययन से पता चलता है कि 46वीं इंफेट्री के ज्यादातर सिपाही उत्तर प्रदेश व बिहार से थे। हवलदार आलम उत्तर प्रदेश के हो सकता हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने तो इंफेट्री के सिपाहियों का कोई रिकार्ड ही नहीं छोड़ा। यह संयोग है कि वर्ष 2014 में जब वेगनर यह किताब लिख रहे थे तब पंजाब के अजनाला में बगावत में शहीद 282 सिपाहियों के कंकाल मिल रहे थे। ये लोग आत्मसमर्पण करना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने इन्हें मौत के घाट उतारने का आदेश दिया था। इन्हें इनके मैडलों के साथ ही दफना दिया गया था। यहां तक कि उनके जेबों में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दिए गए पैसे तक रखे थे। आलम बेग की यह कहानी तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि उनके परिजनों का पता नहीं चलता।
बहरहाल भारत के एक अंग्रेजी अखबार ने हाल ही में इस खोपड़ी के रहस्य के बारे में एक रोचक खबर लिखी है। उसके बाद से यह खबर वायरल हो रही है। पत्रकार शिवकुमार विवेक जैसे अनेक लोगों ने अपनी फेसबुक वॉल पर इस कहनी का हिंदी तर्जुमा पेश किया है ताकि खोपड़ी के सही वारिस की पहचान हो सके।
(शिवकुमार विवेक की फेसबुक वाल से)

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