विवादित ढांचे मामले में सीबीआई की विशेष अदालत के विशेष न्यायाधीश एसके यादव ने सभी आरोपियों को आज तलब किया है। अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के दौरान प्रकाश शर्मा बजरंग दल के संयोजक थे। विनय कटियार, सांसद लल्लू सिंह, चंपत राय, महंत धर्मदास, राम विलास वेदांती, पवन पांडे लखनऊ पहुंच गए हैं।
मामले में वकील केके मिश्रा ने कहा कि वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह और राम मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास के आज बाबरी विध्वंस मामले में फैसला सुनाने जा रही अदालत में हाजिर होने की संभावना कम है। महंत नृत्य गोपाल दास अपनी बिगड़ी सेहत के कारण नहीं पेश होंगे। उनके उत्तराधिकारी महंत कमल नयन दास ने कहा कि महंत नृत्यगोपाल दास महाराज का स्वास्थ ठीक नहीं है। मणिराम छावनी में रह कर ही कोर्ट का फैसला सुनेंगे।
2500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की गई थी :- 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया था। ढांचा गिराने का आरोप लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसी हस्तियों समेत 48 लोगों पर लगा था। इनमें से 16 की मृत्यु हो चुकी है। सीबीआई की स्पेशल कोर्ट 32 आरोपियों की किस्मत का आज फैसला सुनाएगी। 2500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की गई थी।
पहली एफआईआर मुकदमा संख्या 197/92 को प्रियवदन नाथ शुक्ल ने शाम 5:15 पर बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में तमाम अज्ञात लोगों के खिलाफ धारा 395, 397, 332, 337, 338, 295, 297 और 153ए में मुकदमा दर्ज किया।
दूसरी एफआईआर मुकदमा संख्या 198/92 को चौकी इंचार्ज गंगा प्रसाद तिवारी की तरफ से आठ नामजद लोगों के खिलाफ दर्ज किया गया, जिसमें भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, तत्कालीन सांसद और बजरंग दल प्रमुख विनय कटियार, तत्कालीन वीएचपी महासचिव अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, विष्णु हरि डालमिया और गिरिराज किशोर शामिल थे। इनके खिलाफ धारा 153ए, 153बी, 505 में मुकदमा लिखा गया। बाद में जनवरी 1993 में 47 अन्य मुकदमे दर्ज कराए गए, जिनमें पत्रकारों से मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप थे।
हाईकोर्ट के आदेश पर बनी लखनऊ में विशेष अदालत :- 1993 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर लखनऊ में विशेष अदालत बनाई गई थी, जिसमें मुकदमा संख्या 197/92 की सुनवाई होनी थी। इस केस में हाईकोर्ट की सलाह पर 120बी की धारा जोड़ी गई, जबकि मूल एफआईआर में यह धारा नहीं जोड़ी गई थी। अक्टूबर 1993 में सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में 198/92 मुकदमे को भी जोड़कर संयुक्त चार्जशीट फाइल की। क्योंकि दोनों मामले जुड़े हुए थे। उसी आरोप पत्र में विवेचना में आए नाम बाल ठाकरे, नृत्य गोपाल दास, कल्याण सिंह, चम्पत राय जैसे 48 नाम जोड़े गए। केस से जुड़े वकील मजहरुद्दीन बताते हैं कि सीबीआई की सभी चार्जशीट मिला लें तो दो से ढाई हजार पन्नों की चार्जशीट रही होगी।
यूपी सरकार की एक गलती :- अक्टूबर 1993 में जब सीबीआई ने संयुक्त चार्जशीट दाखिल की तो कोर्ट ने माना कि दोनों केस एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए दोनों केस की सुनवाई लखनऊ में बनी विशेष अदालत में होगी, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी समेत दूसरे आरोपियों ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दे दी। दलील में कहा गया कि जब लखनऊ में विशेष कोर्ट का गठन हुआ तो अधिसूचना में मुकदमा संख्या 198/92 को नहीं जोड़ा गया था। इसके बाद हाईकोर्ट ने सीबीआई को आदेश दिया कि मुकदमा संख्या 198/92 में चार्जशीट रायबरेली कोर्ट में फाइल करे।
आठ आरोपी हुए बरी :- वर्ष 2003 में सीबीआई ने चार्जशीट तो दाखिल की, लेकिन आपराधिक साजिश की धारा 120 बी नहीं जोड़ सके। चूंकि, दोनों मुकदमे अलग थे, ऐसे में रायबरेली कोर्ट ने आठ आरोपियों को इसलिए बरी कर दिया, क्योंकि उनके खिलाफ मुकदमे में पर्याप्त सबूत नहीं थे। इस मामले में दूसरा पक्ष हाईकोर्ट चला गया तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 में रायबरेली कोर्ट का आर्डर रद्द किया और आदेश दिया कि सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलता रहेगा।
वर्ष 2007 में हुई पहली गवाही :- ट्रायल शुरू हुआ और वर्ष 2007 में पहली गवाही हुई। वकील केके मिश्रा बताते हैं कि कुल 994 गवाहों की लिस्ट थी, जिसमें से 351 की गवाही हुई। इसमें 198/92 मुकदमा संख्या में 57 गवाहियां हुईं, जबकि मुकदमा संख्या 197/92 में 294 गवाह पेश हुए। कोई मर गया, किसी का एड्रेस गलत था तो कोई अपने पते पर नहीं मिला।
एक साथ मामले की सुनवाई के आदेश: सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ 2011 में सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गई। अपनी याचिका में उसने दोनों मामलों में संयुक्त रूप से लखनऊ में बनी विशेष अदालत में चलाने और आपराधिक साजिश का मुकदमा जोड़ने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रही। जून 2017 में हाईकोर्ट ने सीबीआई के पक्ष में फैसला सुनाया। और सुप्रीम कोर्ट ने 30 सितंबर को फैसला सुनाने का वक्त बंध दिया।
लिब्रहान आयोग का गठन :- केंद्र सरकार ने इस मामले में 6 दिसंबर 1992 को लिब्रहान आयोग का गठन किया, जिसे तीन महीने में अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी, पर लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच पूरी करने में 17 साल लगा दिए। लिब्रहान आयोग को तकरीबन 48 बार कार्य विस्तार मिला। और इस पर करीब आठ से दस करोड़ रुपए खर्च किए गए। 30 जून 2009 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। जांच रिपोर्ट का कोई भी प्रयोग मुकदमे में नहीं हो पाया न ही सीबीआई ने आयोग के किसी सदस्य का बयान लिया।