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शिक्षक दिवस का बदलता स्वरूप : टीचर्स डे

locationलखनऊPublished: Sep 05, 2015 02:51:00 pm

एक बार डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के मित्रों और शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने का आग्रह किया तो उन्होंने उसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया…

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कौशलेन्द्र बिक्रम सिंह
लखनऊ। 5 सितंबर यानी शिक्षक दिवस। यह दिन हमें उस महान व्यक्तित्व की याद दिलाता है जो एक महान शिक्षक के साथ-साथ राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक भी थे। उस महान व्यक्तित्व को पूरी दुनिया डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम से जानती है। शिक्षक के रूप में उनकी प्रसिद्धि के कारण ही उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।


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कहा जाता है कि एक बार उनके मित्रों और शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने का आग्रह किया तो उन्होंने उसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया तभी से हर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता रहा है। स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर सन् 1888 को दक्षिण भारत में चेन्नई से 40 मील उत्तर-पूर्व में तिरूतनी नामक स्थान पर हुआ था।

इनका बचपन तिरूतनी और तिरूपती जैसे धार्मिक स्थानों पर बीता। वे आर्थिक रूप से बहुत कमजोर परिवार से थे। यहां तक कि परिवार का भरण-पोषण करना भी कठिन था। लेकिन इसके बावजूद अपने बच्चे की विलक्षण प्रतिभा को देखकर राधाकृष्णन के पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास किया। राधाकृष्णन की आरंभिक शिक्षा तिरूवल्लुर के गौड़ी स्कूल और तिरूपति मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से उन्होंने पढाई पूरी की। इन्होने कला में स्नातक तथा परास्नातक की उपाधि मद्रास विश्वविद्यालय से प्राप्त की।

डॉ. राधाकृष्णन बेहद जिज्ञासु स्वभाव के थे इसलिए बिना तार्किक स्पष्टता के किसी बात को स्वीकार करना उनके स्वभाव में नहीं था, दर्शन शास्त्र शुरू से ही उनका सबसे प्रिय विषय रहा। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब वे कॉलेज में ही थे उस दौरान वे हिन्दू दर्शन से जुड़े शास्त्रीय ग्रंथों के साथ नामचीन दर्शन-शास्त्रीयों के व्याख्यानों की व्याख्या कर सकते थे। जब वे एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर रहे थे, तो उसी समय उनकी पहली किताब ‘द एथिक्स ऑफ द वेदांत एंड इट्स मैटीरियल प्रीसपोजिशन’ प्रकाशित हुई। इस किताब के प्रकाशन के बाद ही लोग उनकी प्रतिभा के कायल हो गए। इसके बाद उनकी जितनी भी रचनाएं प्रकाशित हुईं सब हाथों-हाथ ली गईं।


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उनकी रचनाएं न केवल अलग-अलग धर्मदर्शनों से जुड़ी हैं, बल्कि वे किताबें उन धर्म क्षेत्रों में एक कीर्तिमान बन चुकी है। अप्रैल 1909 में राधाकृष्णन की नियुक्ति मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज के दर्शनशास्त्र विभाग में हुई। इसके साथ ही साथ इन्होंने भारतीय धर्म तथा दर्शन का गंभीर अध्ययन जारी रखा और दर्शन के एक ख्याति प्राप्त अध्यापक बने। सन् 1918 में डॉ. राधाकृष्णन मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। तीन वर्ष पश्चात् उनकी नियुक्ति भारत के सबसे महत्वपूर्ण दर्शनशास्त्र के पद पर किंग जार्ज पंचम मानसिक तथा चारित्रिक विज्ञान कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई। डॉ. राधाकृष्णन ने ब्रिटिश साम्राज्य के समय विश्वविद्यालीय सम्मेलन के दौरान जून 1926 में तथा सितंबर 1926 में हावर्ड विश्वविद्यालय में हावर्ड विश्वविद्यालय में अन्तर्राश्ट्रीय दर्शनशास्त्र सम्मेलन में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिध्त्व किया।

सन् 1929 में डॉ. राधाकृष्णन को ऑक्सफोर्ड के मैनचेस्टर कॉलेज के प्रिंसिपल जे. इस्टिन कारपेंटर ने अध्यापन के लिए आमंत्रित किया। सन् 1936 से 1939 तक डॉ. राधाकृष्णन ऑक्सफोर्ड के विश्वविद्यालय में पूर्वी धर्म तथा नीतिशास्त्र संबंधों के प्रोफेसर रहे। सन् 1939 में ये ब्रिटिश एकेडमी के फेलो चुने गए। सन् 1939-48 तक ये बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद इन्होंने भारत के राष्ट्रीय व अनतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा की।

सन् 1946-52 तक ये यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि दल के नेता रहे। ये सोवियत संघ में 1949-52 तक भारत के राजदूत रहे, 1952-62 तक भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति रहे तथा 1952 से 54 तक यूनेस्को की सामान्य सभा के अध्यक्ष रहे। इसी दौरान सन् 1954 में उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। इन्होंने सन् 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति का पदभार भी संभाला। सन् 1962 में डॉ. राधाकृष्णन भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पश्चात् राष्ट्पति बने तथा मई 1962 से मई 1967 तक अपना कार्यकाल पूरा किया।

डॉ. राधा कृष्णन का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वे धुर-विरोधियों को भी अपना कायल बना लेते थे। जब वे सोवियत संघ के राजदूत थे तो लोगों को हैरानी होती थी कि एक दर्शनशास्त्री एक कट्टर कम्युनिस्ट स्टालिन को कैसे प्रभावित कर सकता है। पर सच तो यह है कि राधाकृष्णन की जीवनदृष्टि के सामने स्टालिन नतमस्तक हो गए थे। राधाकृष्णन से मुलाकात के बाद स्टालिन उनके बहुत बड़े प्रशंसक हो गए।

वे हमेशा कहा करते थे कि यदि भारत में मैं किसी से मिलना चाहूंगा, तो वे राधाकृष्णन ही होंगे, क्योंकि जब भी मैं उनसे मिलता हूं, तो ऐसा लगता है कि मैं भारत से बात कर रहा हूं। राधाकृष्णन के जन्म के समय उनके परिवार में किसी ने यह नहीं सोचा था कि भौतिकता से दूर उस परिवार में जन्मा बालक एक दिन अपनी प्रतिभा और मेहनत के दम पर विश्वमंच पर भारत देश का प्रतिनिधित्व करेगा।

डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी प्रतिभा से सबको चौंका दिया, और एक शिक्षक के रूप में अज्ञानता का अंधेरा हटाकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने के प्रति हमेशा समर्पित रहे। आज उनके जन्म को 127 वर्ष बीत चुके हैं, आज हर क्षेत्र में भौतिकता हावी है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है, वह भी अब व्यवसाय बन चुका है। आज पैसा इस कदर हावी हो चुका है कि शिक्षकों की भी प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना बन चुकी है।

इस समय तमाम ऐसे शिक्षक हैं जो एक साथ कई-कई स्कूलों, कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों में पढा रहे हैं। कई ऐसे शिक्षक भी हैं जो पद प्राप्ति और पदोन्नति के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। शिक्षकों के बहुत से ऐसे उदाहरण भी हैं जो शिक्षक जैसे सम्मानित पद को शर्मसार कर रहे हैं, ऐसे में इन शिक्षकों को भी नैतिकता का मूल्य पढ़ाने की आवश्यकता है। शिक्षा क्षेत्र में शिक्षक के रूप में डॉ. राधाकृष्णन ने जो प्रतिमूर्ति स्थापित की थी उन्हें ये शिक्षक धूलधूसित कर रहे हैं।


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राधाकृष्णन ने अपना जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि भौतिकता की आंधी में शिक्षक दिवस तब्दील होकर ‘टीचर्स डे’ हो जाएगा। समाचार पत्रों को छोड़ दें तो कुछ ही आयोजन डॉ. राधाकृष्णन के सम्मान में होता है, जिससे छात्र उनके बारे में जान सकें।

आज के छात्रों की नजर में ‘टीचर्स डे’ टीचरों को खुश करने का दिन होता है, उन्हें पुरस्कार और कार्ड भेंट किये जाते हैं, बस ऐसे ही मनाया जाता है आधुनिक ‘शिक्षक दिवस’। लेकिन भारत को जरूरत है फिर से राधाकृष्णन की सोच के बारे में जानने की कि आखिर क्यों उन्होंने अपना जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के लिए कहा था।

वे चाहते थे कि इस दिन अच्छे शिक्षकों का सम्मानित किया जाए और शिक्षकों को उनके उत्तरदायित्वों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरुक किया जाए, क्योंकि देश के विकास के लिए बेहतर शिक्षा सबसे जरूरी कारक है। तो आइये इस शिक्षक दिवस पर शिक्षकों से अनुरोध करते हैं कि देश के विकास के लिए वे अपने उत्तरदायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्वाहन पूरी ईमानदारी से करें और डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सपनों को साकार करें।
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