मिस्र और भारत के कैसे जुड़े तार
सवाल है मिस्र से हजारों मील दूर, भारत के रामपुर से ऊद के तार कैसे जुड़ गए? तो यह कहानी शुरू होती है भारत की आज़ादी से पहले सन् 1942 में। जमीरुद्दीन के वालिद हसीनुद्दीन रामपुर में एक कारपेंटर थे। वह पुराना गंज में रहते थे। जमीरुद्दीन (78) बताते हैं कि “मेरे वालिद भी एक आम कारपेंटर की तरह मेज़, कुर्सी, पलंग और अलमारी बनाया करते थे। लेकिन वे बहुत ज़्यादा हुनरमंद थे”। हसीनुद्दीन के साथ उनके छोटे भाई अमीरुद्दीन भी रहते थे। 1942 में अमीरुद्दीन मुंबई घूमने गए। वहां से वह एक वायलिन खरीदकर रामपुर लौटे। अमीरुद्दीन को उस वायलिन से इतना प्यार हो गया की वह रात-दिन उसे बजाते रहते थे। करीब पांच साल बाद एक दिन अचानक उनके हाथ से वो वायलिन छूट गया और ज़मीन पर गिरकर चकनाचूर हो गया। इससे अमीरुद्दीन सदमे में डूब गए और खाना,पीना छोड़ दिया। अपने छोटे भाई की इस हालत को देखकर हसीउद्दीन ने टूटे वायलिन को गौर से देखा और अपने हुनर का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने एक नया वायलिन बना डाला। अमीरुद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न था।
…एक वायलिन से शुरू हुई कहानी
हसीनुद्दीन ने सोचा की क्यों न मेज़, कुर्सी के साथ दो चार वायलिन भी बनाया जाये? जमीरुद्दीन बताते हैं, “कहानी शुरू हुई एक वायलिन से। और एक दिन ऐसा आया कि मेरे पिताजी कुर्सी, मेज़ बनाना छोड़ कर सैकड़ों की तादाद में वायलिन बनाने लगे। उनके बनाये वायलिन पूरे भारत में बिकने लगे। वो पूरे भारत में बड़े पैमाने पर वायलिन बनाने वाले अकेले आजमी बन गए। उनके वायलिन की उन राज्यों में भारी मांग थी जहां संगीत स्कूल में सिखाया जाता था जैसे तमिलनाडु, केरल और गोवा आदि।
1984 के बाद बदल गयी किस्मत
हिंदी सिनेमा में संगीत की बहुत अहम भूमिका होती है। पर ताज्जुब। रामपुर में बने वायलिन का इस्तेमाल कभी फिल्मों के संगीत में नहीं हुआ। जमीरुद्दीन इसकी वजह बताते हैं, “हम जो वायलिन बनाते हैं वह संगीत की शुरुवाती शिक्षा में काम आता है। फि़ल्म संगीत के लिए जिस वायलिन का इस्तेमाल होता है वह कम से कम एक लाख रूपए में आती है। यह जर्मनी का बना होता। मेरा वायलिन सिर्फ 20000 -30000 रूपए में बिकता है। बहरहाल, हसीनुद्दीन का नाम धीरे-धीरे पूरे भारत में मशहूर हो गया। वाद्य यंत्रों का व्यपार करने वाला हर व्यक्ति उनको जानने लगा। ऊद के बारे में ज़मीरुद्द्दीन बताते हैं, कि “बात साल 1984 की है। कुछ लोग मेरे वालिद से मिलने घर आये और उनको एक नया वाद्य यन्त्र दिखाया। उसका नाम ऊद बताया। उन्होंने मेरे पिताजी से पूछा की क्या वह उस यन्त्र को बना सकते हैं। यह सुनने के बावजूद कि भारत के हर कारीगर ने ऊद बनाने से मना कर दिया था, मेरे वालिद ने हामी भर दी। मैंने भी अपने वालिद को मना किया क्योंकि ऊद और वायलिन में फर्क है। उन्होंने मुझे यह कहते हुए डांट दिया कि मैं उनके फन पर सवालिया निशान लगा रहा हूं। बहराहाल, उन्होंने पहला ऊद बनाया और फिर हर महीने करीब 40 ऊद बनाने लगे। यह सभी साज खाड़ी देशों में निर्यात होते थे।
खाड़ी देशों में है बहुत मांग
ऊद का जन्म तो मिस्र में हुआ पर वह धीरे-धीरे खाड़ी के देशों में भी प्रचलित हो गया। आज यह साज ज़्यादातर खाड़ी के देशों में ही बजाया जाता है। 1996 में हसीनुद्दीन की मौत हो गयी। इसके बाद जमीरुद्दीन ने उनका कारखाना और कारोबार संभाला। जमीरुद्दीन ऊद बनाते तो हैं पर ज़्यादा तादाद में नहीं। क्योंकि मेहनत ज़्यादा है और आमदनी उतनी नहीं। जमीरुद्दीन के एक ऊद की कीमत करीब 20,000 रूपये है। जमीरुद्दीन भी आज 40 ऊद ही तैयार रखते हैं, वह इस संख्या को शुभ मानते हैं। हालांकि, भारत में यह वाद्ययंत्र बहुत ज़्यादा प्रचलित नहीं है पर फिर भी कोई न कोई संगीत का शौक़ीन उनसे ऊद खरीद ही लेता है। ऊद का ताल्लुक मिस्र से है जब शायद पिरामिड बने थे। और आज जमीरुद्दीन ऊद को ऑनलाइन भी बेच रहे हैं।