अलम को घर के मंदिर में रखा जाता हैं एस एन लाल ने बतायाकि अजादारी में अलम को साफ सुथरा कर सजाकर रखते हैं। आज भी मोहर्रम के दिनों में इमाम के रौजों व इमामबाड़ों से अलम का जुलूस निकलता है। उन्होंने कहाकि पहला अलम का जुलूस सन 1380 ईस्वी में आम रास्तों पर निकला था जिसमे जुलूस को देखने के लिए एक हुजूम उभर पड़ा था। अलम में भी कई प्रकार के चिन्ह होते हैं उन चिन्हों की भी अपनी अपनी महत्ता हैं। जिस तरह से हिन्दू समाज में घर की सुख शांति के लिए अपने इष्ट की मूर्ति लाते हैं ठीक उसी तरह से मुस्लिम समाज में अलम का महत्व हैं।
पहले के समय और अब के समय में आया बदलाव पहले जब मुहर्रम का जुलूस निकलता था उसमें अलम बहुत देखने को मिलते थे। तरह तरह के अलम लाइन से लगे हुए दीखते थे लेकिन समय के साथ साथ यह बहुत कुछ बदल गया। मुहर्रम तो होता हैं अज़ादारी भी होती हैं लेकिन अब दूसरे वर्ग के लोग मुहर्रम के जुलूस में बहुत कम नज़र आता हैं और अलम के अलग – अलग तरह के निशान भी नज़र आते हैं। जोकि पहले एक जैसे होते थे।
मुहर्रम के महीने में पहली मजलिस हज़रत अली की कब्र पर हुई साहित्यकार एस एन लाल ने बतायाकि पहली मजलिस 27 जनवरी सन 661 ईसवी में हजरत अली की शहादत पर हुई थी। कहाकि अजादारी और मोहर्रम के महीने की हिंदुस्तान में सही पहचान लगभग 1031 में हुई थी। जब ईरान से सैय्यद सालार मसूद गाज़ी हिंदुस्तान आए थे वो अपने साथ ही अलम लेकर आए ।