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विवेक तिवारी हत्याकांड: पुलिस विरोध ने ताजा की 1973 के बड़े राजनीतिक उलटफेर की याद, जब गिर गई थी UP में इनकी सरकार

locationलखनऊPublished: Oct 05, 2018 10:00:42 pm

Submitted by:

Abhishek Gupta

..जब पुलिस के विद्रोह से 1973 में गिर गई थी इनकी सरकार, 1973 की तरह कहीं इस बार भी न गिर जाए सरकार.

Vivek Protest

Vivek Protest

लखनऊ. विवेक तिवारी हत्याकाड़ के आरोपी सिपाही प्रशांत चौधरी व संदीप के समर्थन में उतरे एटा पुलिस लाइन में तैनात बर्खास्त सिपाही सर्वेश चौधरी ने एटा एसएसपी को अपना इस्तीफा सौंपा दिया है। वहीं शुक्रवार को यूपी पुलिस के कई सिपाहियों (इनमें महिला सिपाही भी शामिल) ने लखनऊ समेत अन्य जिलों के अपने-अपने थाना क्षेत्रों में दोनों आरोपियों के समर्थन में काला फीता बांधकर प्रदर्शन किया, जिससे योगी सरकार व यूपी डीजीपी के लिए संकट बढ़ता जा रहा है। अंदर ही अंदर पनप रहे इस विद्रोंह ने 1973 के बड़े सियासी उलटफेर की यादें ताजा कर दी है जब यूपी में कांग्रेस की सरकार थी। नई पीढ़ी के लोग शायद नहीं जानते होंगे, लेकिन बुजुर्ग भलिभाति इससे परिचित होंगे। घटिया खाने और वेतन विसंगति को लेकर यूपी में पीएसी में वर्षों पूर्व एक विद्रोह की चिंगारी फूट चुकी है। आईये आपको बताते हैं कैसे।
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हो गया था विद्रोह-
सन् 1973 यूपी में कांग्रेस की सरकार थी व पं. कमलापति त्रिपाठी सीएम थे। उस दौरान घटिया खाना मिलने से पीएसी के जवानों व पुलिसकर्मियों में काफी आक्रोश था। अंदर ही अंदर शिकायती व विरोध के स्वर उठ रहे थे, मगर अफसरों व आलाधिकारियों ने इसे नजरअंदाज किया। वो समय इंटरनेट और सोशल मीडिया का कतई नहीं था जिससे सरकार व जनता तक अपनी बात आसानी से पहुंचाई जा सके। हां, आज की तरह ही अखबार थे जिनकी विश्वसनीयता उस दौर में आज सभी ज्यादा थी। उन्हीं में से थे नेशनल हेराल्ड व पायनियर जो लखनऊ में व देश में भी काफी असरदार थे। साथ ही हिन्दी में स्वतंत्र भारत और नवजीवन आदि प्रमुख अखबार थे जो जनता की आवाज बनते थे। लेकिन तब के पत्रकार भी यूपी के पीएसी जवानों की पीड़ा को समझ नहीं सके। बताया जाता है कि उस दौरान किसी छोटे अखबार ने इस मामले में एक सिंगल कालम खबर छापी थी, जिसमें जवानों को परोसे जा रहे घटिया भोजन का जिक्र किया गया था, लेकिन छोटा अखबार होने के कारण इस खबर को लेकर आला अफसरों के कानों में जू तक नहीं रेगी।
अंतः मई 1973 में वहीं हुआ जिसका डर था। पीएसी जवानों का गुस्सा फूट पड़ा और विरोध के स्वर तेज होने लगे। यूपी सरकार में हड़कंप मच गया, केंद्र में बैठी सरकार भी हिल गई। आनन-फानन में विरोध को शांत करने के लिए सेना का सहारा लेना पड़ा। राजधानी की सड़कों पर सेना के वाहन दौड़ पड़े। पुलिस लाइन्स को सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। सेना और पीएसी जवान आमने-सामने थे। बताया जाता है कि सेना ने विरोध कर रहे जवानों पर गोलीबारी की जिसमें करीब 30 जवान मारे गए। करीब 100 से अधिक जवानों को गिरफ्तार किया गया। और हालातों पर आखिरकार काबू पर लिया गया, लेकिन अंत में कांग्रेस को बड़ा नुकसान हुआ और तत्कालीन यूपी सीएम पं. कमलापति त्रिपाठी को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। 12 जून 1973 को उन्होंने सीएम पद से अपना इस्तीफा दे दिया जिसके बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। अंत में विद्रोह तो खत्म हुआ, लेकिन इसकी कीमत कांग्रेस को सत्ता गवाकर चुकानी पड़ी।
आज तो सोशल मीडिया भी है और देश के लोग कहीं और से ज्यादा सबसे अधिक इसी पर सक्रिय हैं। पुलिस विभाग के विद्रोह कर रहे सिपाही इसी का इस्तेमाल कर रहे। वर्षों बाद यूपी में पुुलिस द्वारा विरोध के स्वर उठे हैं। मामला भले ही कुछ भी हो, लेकिन विद्रोह की चिंगारी जिस तरह से फूंटी है उसे ज्यादा हवा मिली तो यूपी सरकार के लिए खतरे की घंटी बज सकती है।
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