पुराना दांव आजमाने की तैयारी में मायावती, संगठन में अपर कास्ट को बड़ी जिम्मेदारी
ओबीसी हर दल की जरूरत क्यों?आगामी विधानसभा चुनाव में अपने नफा-नुकसान को देखते हुए सभी दल सियासी गुणा-भाग में जुटे हैं। हर पार्टी की नजर उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जाति समूह ओबीसी को लुभाने की है। प्रदेश में ओबीसी वोटरों की संख्या कुल आबादी की करीब 42-45 फीसदी है। इनमें यादव 10 फीसदी, लोधी 3-4 फीसदी, कुर्मी-मौर्य 4-5 फीसदी और अन्य का प्रतिशत 21 फीसदी है। दूसरी जातियों में दलित वोटर 21-22 फीसदी, सवर्ण वोटर 18-20 फीसदी और मुस्लिम वोटर 16-18 फीसदी हैं। ऐसे में ओबीसी यूपी में सबसे बड़ा जाति समूह है। यह अकेले किसी को जिताने-हराने में सक्षम हैं। इसलिये हर दल गुणा-भाग के जरिये इन्हें अपने खेमे में रखना चाहता है। खासकर बीजेपी और समाजवादी पार्टी की नजर ओबीसी पर है।
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ब्राह्मण क्यों जरूरी?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि संख्या भले ही कम हो ब्राह्मण किसी भी दल के पक्ष में राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम हैं। इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी अपनी रणनीति ब्राह्मण वोटरों को ध्यान में रखते हुए बना रही है। बीजेपी, कांग्रेस और बसपा पहले ही ब्राह्मणों के सहारे जीत का स्वाद चख चुकी है। एक बार फिर भी कवायद इन्हें अपने खेमे में लाने की है। आजादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश में 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने हैं। हालांकि, 1990 के मंडल आंदोलन के बाद यूपी को कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं मिला। इसकी सबसे बड़ी वजह यूपी की सियासत पिछड़े, मुस्लिम और दलित पर केन्द्रित हो गई। इसके बाद मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। 1991 में जब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी, तब बीजेपी ने पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया। उसके बाद बीएसपी और सपा ने मिलकर सरकार बनाई। उस समय ब्राह्मणों का महत्व यूपी की राजनीति में थोड़ा कम हुआ। सियासत में यहे सिलसिला वर्ष 2007 तक मायावती के मुख्यमंत्री बनने तक जारी रहा।