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एक-एक कर आखिर क्यों मायावती का साथ छोड़ गए बसपा की सोशल इंजीनियरिंग के पुरोधा

locationलखनऊPublished: May 22, 2019 11:55:55 am

-…तो क्या खत्म हो गया यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का दौर-बसपा प्रमुख को जरूरत नहीं है पार्टी के पुराने नेताओं की?-आकाश आनंद जैसे नए चेहरों को पार्टी की कमान सौंपने की कवायद- तो फिर सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय के नारे का क्या होगा

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चुनाव नतीजों से पहले माया की सोशल इंजीनियरिंग फेल, रामवीर करेंगे बड़ा खुलासा

पत्रिका इन्डेप्थ स्टोरी
लखनऊ. लोकसभा चुनाव के नतीजों के एक दिन पहले ही बसपा सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को तगड़ा झटका लगने वाला है। मायावती के विश्वस्त सहयोगी रहे और उनकी सोशल इंजीनियरिंग के बड़े चेहरे रामवीर उपाध्याय बुधवार की शाम तक बसपा छोड़ सकते हैं। रामवीर की चाल को भांपते हुए हालांकि, मायावती ने उन्हें पहले ही निलंबित कर दिया है। रामवीर के पार्टी छोडऩे से बसपा को पश्चिमी उप्र में बड़ा झटका लगेगा। पार्टियों से नेताओं का जुडऩा और छोड़ जाना कोई नयी बात नहीं है। लेकिन, रामवीर जैसे नेताओं का बसपा छोड़ जाना यह बताता है कि मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का तिलिस्म ढह रहा है। वह सोशल इंजीनियरिंग जिसकी नींव स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी,आरके चौधरी,श्रीराम पाल,ठाकुर जयवीर सिंह,बाबू सिंह कुशवाहा और बलिहारी बाबू जैसे सर्वजातियों के नेताओं ने रखी थी अब बसपा के साथ नहीं हैं। तो क्या माना जाए कि सोशल इंजीनियरिंग की बसपा को जरूरत नहीं है या फिर यह प्रयोग अब पुराना पड़ चुका है। इसलिए नेता बसपा को छोड़ रहे हैं। ऐसे में मायावती के सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय के नारे का क्या होगा।


एक-एक कर साथ छोड़ गए पुराने नेता
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का तिलिस्म बसपा के पुराने नेता थे। यह विभिन्न जातियों से आते थे और इनका बड़ा सामाजिक आधार था। लेकिन पार्टी के यह कद्दावर नेता एक-एक कर बसपा का साथ छोड़ गए। मायावती ने इन नेताओं को रोकने की कोशिश नहीं की। वह अब अपने भतीजे आकाश आनंद जैसे नए और नौजवान नेताओं को पार्टी में आगे बढ़ाने की नीति पर काम कर रही हैं।


इन ब्राह्मणों ने छोड़ा साथ
ब्राह्मण चेहरा रामवीर उपाध्याय और बृजेश पाठक पार्टी में सतीश चंद्र मिश्र के बाद बड़े नाम थे। इनमें बृजेश पाठक 2017 में ही बसपा का दामन छोड़ चुके हैं। वह इस समय भाजपा सरकार में मंत्री हैं।


पटेलों की अनदेखी पड़ी भारी
बसपा में कभी बहुत शिद्दत के साथ पटेल जुड़े थे। अपना दल बनाने वाले सोनेलाल पटेल कभी कांशीराम के विश्वस्त साथी थे। लेकिन मायावती के साथ उनकी नहीं बनी। वे पार्टी से अलग होकर अपना दल बना लिए। हालांकि वह अब दुनिया में नहीं हैं। इसी तरह आरके पटेल,जंग बहादुर पटेल,राम लखन वर्मा, बरखूराम वर्मा जैसे कद्दावर नेता भी बसपा से ही जुड़े थे। इन सभी ने पटेल,वर्मा और कटियार जैसी जातियों को पार्टी से जोडऩे में बड़ी भूमिका निभाई। लेकिन इनमें से कोई भी अब बसपा के साथ नहीं है।


स्वामी प्रसाद मौर्य का जाना बड़ा झटका
बसपा में कभी टॉप 5 नेताओं में शुमार हुआ करते थे स्वामी प्रसाद मौर्य। लेकिन 2017 में इन्होंने भी बसपा को बॉय-बॉय कह दिया। अब वह भाजपा में हैं और श्रममंत्री हैं। इसी तरह बाबू सिंह कुशवाहा कभी कांशीराम के दाहिने हाथ हुआ करते थे। कांशीराम के न रहने के बाद बाबू सिंह भी बसपा से किनारे लगा दिए गए। एनआरएचएम घोटाले में वह जेल में हैं। लेकिन इनकी जन अधिकार पार्टी कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ रही हैं। यह दोनों नेता बसपा में मौर्या,शाक्य और कुशवाहा बिरादरी को जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।


दलितों के बड़े नेता थे चौधरी और भाष्कर
आरके चौधरी, दीनानाथ भास्कर, राजबहादुर, इंद्रजीत सरोज, जैसे कद्दावर नेता भी बसपा से अलग हो चुके हैं। यह सभी नेता बसपा के कैडर से जुड़े हुए थे। दलितों की विभिन्न जातियों में इनकी गहरी पैठ थी। सोशल इंजीनियरिंग की नींव इन्हीं नेताओं के बलबूते रखी गयी थी। यह सब बसपा का जनाधार गांव-गांव में मजबूत करने का काम किया करते थे। लेकिन इनके जाने से पार्टी कमजोर हुई।


मुसलमानों को जोडऩे का जिम्मा नसीमुद्दीन पर
डा. मसूद अहमद, मोहम्मद अरशद और नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नाम बसपा के मुस्लिम चेहरे हुआ करते थे। लेकिन समय के साथ इन नेताओं की भी बसपा के साथ नहीं निभी। विभिन्न कारणों से यह सब के सब मायावती का साथ छोड़ गये। इन सबके जाने से बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का तिलिस्म ढहना शुरू हो गया।


इन नेताओं की भी हुई उपेक्षा
बसपा के संस्थापक सदस्यों में बलिहारी बाबू, ईसम सिंह, राम प्रसाद, दयाराम पाल, भागवत पाल, श्रीराम पाल,ठाकुर जयवीर सिंह आदि का भी नाम लिया जा सकता है। लेकिन इनमें से कोई भी आज बसपा में मुख्यधारा में नहीं है। शायद इसीलिए पार्टी के पूर्व विधायक हरपाल सैनी कहना है इस बार लोकसभा चुनाव में बसपा को सपा का साथ इसी वजह से लेना पड़ा, क्योंकि कद्दावर नेताओं की भरपाई पैसे लेकर नए नेताओं से नहीं हो सकती। यही वजह है कि पार्टी सर्वसमाज को जोडऩे की मुिहम में पिछड़ रही है।

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