स्वादिष्ट और पौष्टिक है निहारी कुल्चा यूं तो बारहो महीने बिकता है निहारी और कुल्चा। लेकिन, रमजान के महीने में निहारी कुल्चा खाने का अपना अलग ही मज़ा है। यह स्वादिष्ट होने के साथ ही बहुत पौष्टिक भी होता है। लखनऊ में कई ऐसी जगह हैं जहां का निहारी कुल्चा बहुत स्वादिस्ट है। इसे बच्चे, युवा और बुजुर्ग बहुत चाव से खाते हैं। तरावी के बाद सहरी करने के वक्त दुकानों पर बिरयानी, निहारी कुल्चे, कोरमा, जर्दा की मांग बढ़ जाती है।
यहां का निहारी कुल्चा सबसे अलग पुराने लखनऊ में नक्खास,नज़ीराबाद, मौलवीगंज, अकबरीगेट, हुसैनाबाद, घंटाघर, अमीनाबाद,चौक, सहादतगंज,बिल्लौजपुरा, मकबूलगंज में निहारी कुल्चे का असली जायका मिलता हैं। घड़ी वाली मस्जिद के सामने निहारी कुल्चा, शीरमाल और खमीरी रोटी खाने के लिए शाम होते ही मारामारी मच जाती है। यहां गोश्त, गुर्दे, बकरे के पाए की निहारी विशेष तौर पर बनाए जाते है। इसी तरह की भीड़ अकबरी गेट पर भी जुटती है। यहां की स्वादिष्ट निहारी कुल्चा खाने लोग दूर-दूर से आते हैं।
इस तरह से बनती है निहारी अकबरी गेट के सऊद अहमद बताते हैं कि निहारी कुल्चा ख़ास मसाले से तैयार होती है। सभी मसाले घर पर ही तैयार होते हैं। गोश्त के बड़़े टुकड़ों पर 20 से 25 मसालों के मिश्रण का खास लेप लगाया जाता है। फिर सभी टुकड़ों को एक पोटली में रखकर पतीले में कोयले के ऊपर पकाया जाता है। प्याज, हल्दी, बेसन, कई तरह की दालें मिलाकर इसे देर तक पकने के लिए छोड़ दिया जाता है। बाद में इसे कुल्चे के साथ खाया जाता है।
हिन्दू-मुस्लिम दोनों लेते हैं निहारी का मज़ा नवाबों के शहर में हिन्दू-मुस्लिम एक साथ नहारी-कुल्चे का स्वाद लेते हैं। इफ्तार के लिए रोजेदार नमाज़ अदा करके जब रोजा खोलते हैं तब गैर-मुस्लिम समुदाय के लोग भी निहारी खरीदने पहुंचते हैं।
क्या कहते हैं रोजेदार आसिफ बताते हैं कि निहारी का स्वाद लाजवाब होता हैं। खजूर खाकर रोजा खोलने के बाद निहारी खाना अलग ही मजा देता है। इसको खाने के बाद पूरे दिन प्यास नहीं लगती। इसकी वजह से 18 घंटे रोजा रख लेते हैं।