…और तय कर लिया कि अब केवल समाज सेवा ही करना है
फुले छह साल की उम्र से ही समाजसेवा से जुड़ गईं थीं, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई आठ साल की उम्र में। 16 दिसंबर 1995 को एक सामाजिक आंदोलन के दौरान पीएसी की गोली लगने से वह घायल हो गईं और उन्हें लखनऊ जेल ले जाया गया। जेल पहुंचते ही उन्होंने तय कर लिया कि अब उन्हें केवल समाजसेवा करनी है। जब वह जेल से वापस लौटीं तो उन्होंने अपने पिता से बात की और ससुराल पक्ष वालों को बुलाकर अपनी इच्छा जाहिर की। सबकी सहमति बनने के बाद फुले ने अपनी सगी छोटी बहन की शादी अपने पति से करा दी और अपने पूरी तरह से संन्यास धारण कर लिया। उसके बाद वह बहराइच के जनेसवा आश्रम से जुड़ गईं। वह आश्रम के माध्यक से गरीब लड़कियों की शादी कराना, साधुओं का भंडारा, प्रवचन जैसे समाजसेवा के काम में जुट गईं। फुले राजनीति विज्ञान मेूं पोस्ट ग्रेजुएट हैं। राजनीति में आने की उनकी कहानी भी उनकी जिंदगी की तरह हिला देने वाली है।
फुले छह साल की उम्र से ही समाजसेवा से जुड़ गईं थीं, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई आठ साल की उम्र में। 16 दिसंबर 1995 को एक सामाजिक आंदोलन के दौरान पीएसी की गोली लगने से वह घायल हो गईं और उन्हें लखनऊ जेल ले जाया गया। जेल पहुंचते ही उन्होंने तय कर लिया कि अब उन्हें केवल समाजसेवा करनी है। जब वह जेल से वापस लौटीं तो उन्होंने अपने पिता से बात की और ससुराल पक्ष वालों को बुलाकर अपनी इच्छा जाहिर की। सबकी सहमति बनने के बाद फुले ने अपनी सगी छोटी बहन की शादी अपने पति से करा दी और अपने पूरी तरह से संन्यास धारण कर लिया। उसके बाद वह बहराइच के जनेसवा आश्रम से जुड़ गईं। वह आश्रम के माध्यक से गरीब लड़कियों की शादी कराना, साधुओं का भंडारा, प्रवचन जैसे समाजसेवा के काम में जुट गईं। फुले राजनीति विज्ञान मेूं पोस्ट ग्रेजुएट हैं। राजनीति में आने की उनकी कहानी भी उनकी जिंदगी की तरह हिला देने वाली है।
जब विरोध किया तो स्कूल से नाम काट दिया गया
लेकिन राजनीति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट फुले की राजनीति में आने की कहानी भी उनकी निजी जिंदगी की तरह ही हिला देने वाली है। जब उन्होंने आठवीं कक्षा पास की तो उन्हें सरकारी योजना से 480 रुपए वजीफा मिला था, जिसे स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक ने जबरन अपने पास रख लिया। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो स्कूल से उनका नाम काट दिया गया और तीन साल घर बैठा दिया गया। बस क्या था उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और यहीं से शुरू हो गया उनका राजनीति का सफर। 2001 में सावित्री बाई फूले पहली बार बहराइच जिला पंचायत की सदस्य चुनी गईं। वही 2005 और 2010 में भी इस पद के लिए चुनी गईं। वह 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर बलहा (सु.) सीट से चुनाव लड़ी और पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचीं। उसके बाद मोदी लहर में वह 2014 में पहली बार सांसद बनीं।
लेकिन राजनीति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट फुले की राजनीति में आने की कहानी भी उनकी निजी जिंदगी की तरह ही हिला देने वाली है। जब उन्होंने आठवीं कक्षा पास की तो उन्हें सरकारी योजना से 480 रुपए वजीफा मिला था, जिसे स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक ने जबरन अपने पास रख लिया। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो स्कूल से उनका नाम काट दिया गया और तीन साल घर बैठा दिया गया। बस क्या था उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और यहीं से शुरू हो गया उनका राजनीति का सफर। 2001 में सावित्री बाई फूले पहली बार बहराइच जिला पंचायत की सदस्य चुनी गईं। वही 2005 और 2010 में भी इस पद के लिए चुनी गईं। वह 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर बलहा (सु.) सीट से चुनाव लड़ी और पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचीं। उसके बाद मोदी लहर में वह 2014 में पहली बार सांसद बनीं।
फुले 2007 में भी वे चरदा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ी थीं, लेकिन 1,070 वोटों से हार गईं। फुले ने सखी संप्रदाय संगठन बना रखा है जिसके जरिए स्थानीय स्तर पर महिलाओं के हित में काम करती हैं। वह बीजेपी से पहले बीएसपी में रह चुकी हैं।