पर्यावरण विशेषज्ञ प्रो. ध्रुव सेन सिंह का कहना है कि इस वर्ष लगाए गए कर्फ्यू के बावजूद ऑक्सीजन और दवाओं की कमी से लोगों को बाहर निकलना पड़ा। 20 से 30 फीसदी वाहन भी चले। कोरोना की दूसरी लहर में मौतें भी ज्यादा हुई। पहले जहां श्मशान घाटों पर रोजाना 15 से 20 शवों के अंतिम संस्कार होते थे, वहीं कोरोना पीक में यह संख्या सैकड़ों तक पहुंच गई। अंतिम संस्कार में लकड़ियां जलाने के इस्तेमाल से प्रदूषण बढ़ता है। लखनऊ के गोमतीनगर में प्री मॉनसून 2020 में पीएम 10 का औसत स्तर 90.1 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था, जो कि इस साल 128.7 माइक्रोग्राम प्रति मीटर पर पहुंच गया।
शवों को जल में बहाने से बढ़ रहा प्रदूषण मोक्षदायिनी काशी में गंगा का रंग बदलने लगा है। गंगा के पानी के हरे हरे शैवाल मिलने के बाद जिला प्रशासन सतर्क हो गया है। घाटों के किनारों से लेकर मध्य धारा तक गंगा का पानी इन दिनों हरा हो गया है। 21 मई को पहली बार गंगा का रंग हरा हुआ था। इसके तीन-चार दिनों बाद स्थिति सामान्य हो गई थी लेकिन उसके कुछ दिनों बाद फिर से गंगाजल का रंग बदल गया। इसका एक कारण इंडस्ट्रियल एरिया से निकलने वाले नाले माना जा रहा है, जिसमें केमिकल की मात्रा अधिक होने से पानी दूषित हो रहा है। दूसरी ओर शवों को जल में बहाने से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। गंगा किनारे घाटों शव दफनाए जाने और शवों को जल में बहाने का सिलसिला बीते डेढ़ माह में काफी बढ़ गया था। अप्रैल के प्रारंभ में ही रोजाना सैकड़ों की संख्या में शवों का दफनाया गया, जबकि शवों का नदी किनारे दाह संस्कार भी कराया गया।
कानपुर में बीते एक माह में कोरोना से कई मौतें हुई हैं। इनमें 100 से अधिक शवों का निस्तारण गंगा में हुआ। कानपुर के आंकड़ों से समझा जा सकता है कि अप्रैल-मई में गंगा किनारे के 26 जिलों से हर दिन कितने शव गंगा में प्रवाहित किए गए होंगे या रेत पर दफनाए गए होंगे। और इनसे कितना प्रदूषण हुआ होगा। उधर, प्रयागराज के फाफामाऊ घाट पर बीते दिनों बड़ी संख्या में शवों को पानी में बहाने से प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया। गंगा किनारे के शमशान घाट कब्रिस्तान में तब्दील नजर होने लगे। नतीजन गंगा का जलस्तर बढ़ने और मिट्टी की कटान होने की वजह से शव कब्र से बाहर आकर गंगा में समाहित होने लगे, जिससे कि पानी दूषित होने के साथ ही प्रदूषण का स्तर बढ़ने लगा।