थाणा-मेवाड़ा मार्ग पर जिला मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर निचला झापा गांव गुजरात से सटा है। पहले पत्रिका टीम वीरपुर गांव के बस स्टैंड पहुंची। वहां से एक खुर्दबुर्द सड़क पर आगे बढ़े। यहां से गुजरते मोटर साइकिल सवार दो लोगों से जीवा भाई का पता पूछा तो कहा कि पीछे चले आओ। कुछ दूर सड़क छोड़ पगडंडीनुमा कच्ची सड़क पर उतरे। थोड़ा आगे जाते ही नदी सामने आ गई तो दोनों बोले- ‘जीवा भाई के घर जाने का यही रास्ता है। नदी पार कर जाना होगा।’ यह देखकर लगा कि भले ही बड़ी-बड़ी नदियों पर करोड़ों के पुल बनें, लेकिन जिन्होंने आजादी दिलाने में योगदान दिया, वे भी मुख्य धारा से जुडऩे चाहिए थे।
नदी पार कर दोबारा कच्ची सड़क से पत्रिका टीम जीवाभाई के घर तक पहुंची। आंगन के एक छोर पर महिला चूल्हे पर रोटी बनाती मिली। दूसरी ओर कुर्सी लगाए एक बुजुर्ग बैठे धूप सेंक रहे थे। बदन पर धोती और कंधों पर शॉल डाले, गांधी चश्मे लगाए बुजुर्ग को देखकर समझने में तनिक देर नहीं लगी कि यही जिले में जंग-ए-आजादी का अंतिम जीवित सिपाही और साक्षी है। पास में जाकर प्रणाम करने पर उनकी धुंधलाई आंखों में चमक और होंठों पर मुस्कान बिखर गई।
कांतिलाल ने बताया कि सरकार की ओर से पेंशन के अलावा कोई विशेष लाभ नहीं मिला। मकान कवेलूपोश ही था। हाल ही पास में पक्का मकान बनाया है। पुरखों की जमीन पर खेती से आजीविका चल रही है। माजम नदी पर रपट और सड़क के लिए पंचायत से लेकर कलक्ट्रेट तक फरियाद की। कुछ अफसर देख भी गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
हर साल 15 अगस्त व 26 जनवरी को प्रशासनिक परंपरा के चलते जीवाभाई को जिला स्तरीय समारोह का न्योता मिलता है, लेकिन आने-जाने की कोई व्यवस्था नहीं होती है। कांतिलाल 1500 से 2000 रुपए में वाहन किराए कर उन्हें ले जाता है। भले ही मंत्रियों और अफसरों के काफिलों में सरकारी गाडिय़ां ईंधन का धुआं उड़ाती रहें, लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मान के लिए भी ससम्मान लाने की पहल नहीं होती।