डॉ. मंजूषा श्रीवास्तव ने बताया है कि बाजार में मौजूद बायोप्लास्टिक बायोडिग्रडेबल है। इसे वातावरण में अपघटित होने में 90 से 180 दिन लगता है। इसके लिए उचित तापमान और माइक्रोब्स की जरूरत होती है। डॉ. मंजूषा ने कहा कि इसी का विकल्प तलाशने की कोशिश एनबीआरआई में अर्से से जारी थी, जिसमें कामयाबी मिल गई है। हमारी ईजाद वनस्पति आधारित बायोप्लास्टिक जलने पर राख में बदल जाती है। उन्होंने दावा किया कि विश्व में वनस्पति आधारित प्लास्टिक पर यह अनूठा शोध है, जो पर्यावरण को बड़ी राहत दिलवा सकता है।
पूरी तरह से है प्राकृतिक डॉ. मंजूषा ने बताया कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से प्राकृतिक है। बायोप्लास्टिक तैयार करने में जो गोंद लगती है, वह पेड़ से आसानी से मिल जाती है। निर्माण की प्रौद्योगिकी भी बहुत आसान है। उन्होंने बताया कि पर्यावरण में पड़े होने पर यह 20 दिन में खुद कंपोस्ट बन जाती है। साथ ही, इसे बनाने में निकले सह उत्पाद हरित खाद तैयार करे में भी उपयोगी हैं। बायोप्लास्टिक बायोडिग्रडेबल होने के साथ-साथ टिकाऊ और लचीली भी है। इसका प्रयोग पैकेजिंग, लेमिनेशन, खाद्य सामग्री की पैकिंग, मेडिसिन, टेक्सटाइल और पेपर इंडस्ट्री में संभव है। फलों की कोटिंग के लिए भी पूर्ण सुरक्षित है। कागज पर कोटिंग करके उसे मजबूती दे सकते हैं। साथ ही इसके कैरी बैग भी तैयार किए जा सकते हैं। फार्मा इंडस्ट्री में कैप्सूल के कवर के लिए भी यह 100 फीसदी सुरक्षित है।
बाजार में तीन तरह के प्लास्टिक उपलब्ध बाजार में तीन तरह के प्लास्टिक उपलब्ध हैं। ये स्टार्च, सेल्यूलोज और प्रोटीन आधारित होते हैं। पैकेजिंग में इस्तेमाल होने वाली बायोप्लास्टिक कार्न और चावल के स्टार्च से बनी बायोप्लास्टिक होती है। स्टार्च से बनी बायोप्लास्टिक में प्लास्टिसाइजर के रूप में 50 फीसद तक ग्लाइसेरॉल मिलाया जाता है, जो तेल से प्राप्त होता है और ग्लूकोज में खमीर पैदा करके तैयार होता है। वहीं, सेल्यूलोज बायोप्लास्टिक बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में सॉफ्ट वुड की जरूरत होती है।