आपातकाल के खामोश कदम
25 जून 1975 की याद आज 44 वर्ष बीत जाने के बावजूद भूलती नहीं। उन दिनों की दशहत भरी स्मृृतियां आज भी भय और रोमांच पैदा करती हैं। बिहार और गुजरात के नौजवानों ने 1974 में भ्रष्टाचार की समस्याओं को लेकर आंदोलन छेड़ा था। देश में हलचल थी। विपक्षी दलों की भागीदारी से यह व्यापक राष्ट्रीय मुद््दा बन गया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और सभाओं का दौर शुरू हो गया था। विरोध की आवाज को तब और बल मिला जब 1942 की अगस्त क्रान्ति के नायक श्री जयप्रकाश नारायण ने नेतृृत्व सम्हाल लिया।
25 जून 1975 की याद आज 44 वर्ष बीत जाने के बावजूद भूलती नहीं। उन दिनों की दशहत भरी स्मृृतियां आज भी भय और रोमांच पैदा करती हैं। बिहार और गुजरात के नौजवानों ने 1974 में भ्रष्टाचार की समस्याओं को लेकर आंदोलन छेड़ा था। देश में हलचल थी। विपक्षी दलों की भागीदारी से यह व्यापक राष्ट्रीय मुद््दा बन गया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और सभाओं का दौर शुरू हो गया था। विरोध की आवाज को तब और बल मिला जब 1942 की अगस्त क्रान्ति के नायक श्री जयप्रकाश नारायण ने नेतृृत्व सम्हाल लिया।
उस समय मैं मेरठ विश्वविद्यालय और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में छात्र-युवा आंदोलन में सक्रिय था। जब सन्् 1974-75 में युवा आंदोलन ने गति पकड़ी तो मै भी उसमें शामिल था। राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-युवा संघर्ष समिति बनी तो उसमें मुझे भी स्थान मिला।
गाजियाबाद के रामलीला मैदान में 23 फरवरी 1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी द्वारा एक विराट जनसभा में लोकतंत्र बचाने के लिए नौजवानों का आव्हान किया गया। युवा नेता के तौर पर मुझे भी इस सभा को संबोधित करने का अवसर मिला।
25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सभा के बाद आधी रात में ही कार्यवाही शुरू हो गई। रात में ही देश में आपातकाल लग गया। देश भर में नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई अखबारों पर सेशंरशिप लागू कर दी गई। विरोध में देश भर में प्रदर्शन और भूमिगत आंदोलन होने लगे।
नौजवान साथियों को संगठित कर मै भी संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में जुट गया। आपातकाल में मैने केसी त्यागी के साथ मिलकर ‘प्रतिरोध‘ नामक पत्र का गुप्त रूप से प्रकाशन शुरू कर दिया। लेखक बी0 एम0 सिन्हा ने ‘हिन्द पाकेट बुक्स दिल्ली‘ से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘आपरेशन इमरजेंसी‘ मंे इसका उल्लेख किया है। इस ‘प्रतिरोध‘ पत्र ने आंदोलन को गति दी। 23 दिसम्बर 1975 को चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर एक दर्जन साथियों के साथ सत्याग्रह करते हुए गाजियाबाद के घंटाघर चैराहे पर गिरफ्तारी हुई। हम लोगों को हथकड़ी लगाकर मेरठ जेल ले जाया गया। छात्र-युवा आंदोलनों में 1968 से पहले और बाद में भी कई बार जेल जा चुका था पर आपातकाल में जेल के दिनो की बात अलग थी। इस जेल में रहने की अवधि अनिश्चित थी। हमसब बंदी छूटेगें भी या जेल के अंदर ही घुट-घुटकर शहीद हो जाएगें, का भी पता नहीं था। एक गहरा अंधेरा था जहां लक्ष्य प्राप्ति के उम्मीद की किरण कभी-कभी कौंध जाती थी। हम उसी मंे रह रहे थे। जनप्रतिरोध को लेकिन बहुत समय तक दबाया नहीं जा सका। 19 महीने की आपातकाल की अवधि जब सन्् 1977 में समाप्त हुई तो जेपी ने संपूर्ण विपक्ष को एकजुट कर पुनः लोकतंत्र की प्रतिष्ठा की।
यहां यह गौर करने की बात है कि देश में तब भी संविधान था, संसद थी, सत्तापक्ष के सामने विपक्ष था फिर भी एकाधिकारवादी तत्व सब पर हावी हो गए। संविधान बनाते समय डा0 आंबेडकर साहब ने भी चेतावनी दी थी कि इसके दुरूपयोग की आशंका के प्रति हमंे सचेत रहना होगा। सत्ता में येनकेन प्रकारेण बने रहने की इच्छा और नैतिकता का तिरस्कार खतरे की घंटी हैं।
आज देश में कुछ वैसी ही स्थितियां उभरती नजर आती हैं। यदि राजनीतिक व अन्य क्षेत्रों में चल रहे घटनाक्रमों के लिहाज से देखा जाए तो इसकी संभावना को नहीं टाला जा सकता हैं। वस्तुतः लोकशाही में अधिनायकशाही के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता है। लोकतंत्र लोकलाज से ही चलता है। सत्ता का गत दिनों जो राजनीतिक आचरण सामने आया है वह जनतांत्रिक संस्थानों के अधिकारों के हनन की अपरोक्ष किन्तु घातक प्रक्रिया है। आज तो ऐसा लगता है कि जैसे आपातकाल का पूर्वाभ्यास हो रहा हो। पर इतिहास से अवगत रहना चाहिए कि अंत में लोकशक्ति का अस्तित्व ही कायम रहता है।
इन दिनांे वैचारिक प्रतिबद्धता पर भारी संकट का दौर है। किसानों के विरूद्ध गहरी साजिश का बड़ा कारण कारपोेरेट पूंजीवाद को ताकत देना है। यह स्थिति नीतियों की प्राथमिकता को प्रभावित करती है। सांस्कृृतिक राष्ट्रवाद बिना सामाजिक न्याय के कैसे सम्भव हो सकेगा? देश में सत्ता का बढ़ता कंेद्रीयकरण और सरकार की अधिनायकवादी कार्यशैली ने लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संकट खड़ा कर दिया है। यह सब भी आपातकाल का दबे कदम आने का संकेत है। इस अघोषित आपातकाल में लगभग वही लक्षण रहते हैं जो 1975 में घोषित आपातकाल में थे।
सरकारों द्वारा मनमानी और जनता के अधिकारों को दर किनार कर नागरिकों के संवैधानिक मौलिक अधिकारों का दमन घोषित अथवा अघोषित दोनों स्थितियों में खतरे की वजह बन सकता है। समाज के बीच वैमनस्य लोकतंत्र को कमजोर करता है। सामाजिक गैरबराबरी और आर्थिक विषमता के कारण तनावपूर्ण स्थिति का बने रहना स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की अवहेलना है।
छात्रों-नौजवानों की बेकारी दूर करने का कोई समाधान नहीं किया जाता है। वहीं अगर वे अपने अनिश्चित भविष्य के विरूद्ध आवाज उठाते हैं तो उनका दमन किया जाता है। ठीक इसी तरह किसानों के साथ भी कम अत्याचार नहीं हो रहे हैं। जिस समाज व्यवस्था में नौजवानों और किसानों की आवाज बंद की जाती हो और वे लोग आत्महत्या जैसी खतरनाक स्थिति तक पहंुचते हो, वहां लोकतंत्र बेमानी हो जाती है। जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने की साजिश हो, वहां आपातकाल नहीं है तो क्या है? लोकतंत्र, समाजवाद और पंथ निरपेक्षता हमारे संविधान की मूल प्रस्तावना के हिस्से है, इनके विपरीत आचरण एवं व्यवहार आपातकाल की परिधि मंे ही माने जाएंगे।
आपातकाल की परिस्थितियों और आज के सरोकारों को जोड़कर यह देखना मुनासिब होगा कि फिर कोई राजसत्ता की लिप्सा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार की महत्ता को आहत न कर सके। आपातकाल के बाद की पीढ़ी उन अनुभवों से फिर नहीं गुजरे। उसे सचेत करने की आवश्यकता इसलिए भी है कि राजनीति में अवसरवाद और व्यक्तिवाद की शक्तियां फिर उभर रही है। देश में डर का माहौल है। एक बड़ा वर्ग आतंक में जी रहा है। रागद्वेष के आधार पर विपक्ष के प्रति व्यवहार लोकतंत्र की व्यवस्था पर आघात है।