प्राचीन काल से सिर पर मैला ढोने की प्रथा माना जाता है कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा प्राचीन काल से जारी है। मुगल काल में यह प्रथा प्रचलित रही। इसके बाद ब्रिटिश सरकार में भी यह प्रथा प्रचलित रही। ब्रिटिश सरकार में भारत में सीवरेज सिस्टम की शुरुआत हुई लेकिन यह कोलकाता सहित अन्य शहरों में ही यह प्रथा शुरू हो सकी। देश के बड़े हिस्से में यह प्रथा बदस्तूर प्रचलित रही। कई सामाजिक सुधारकों ने इसकी ओर ध्यान खींचा जिसके बाद सरकारों का ध्यान इस विषय पर गया। इसके बाद देश के कई हिस्सों में आज भी यह प्रथा बदस्तूर जारी है। बुंदेलखंड के कई हिस्सों में आज भी एक बड़ी आबादी सिर पर मैला ढोने को मजबूर है।
बुंदेलखंड के कस्बों में कायम है घिनौना काम बुंदेलखंड के कई हिस्सों में यह शर्मनाक परम्परा अभी भी कायम हैं। कहीं सामाजिक तानेबाने का दवाब तो कहीं आर्थिक रूप से कमजोरी, इस शर्मनाक काम में फंसे लोगों को उबरने नहीं दे रही है। यह हालत तब है जब सिर पर मैला ढोने के लिए प्रेरित करने या दवाब बनाने वालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है। बावजूद इसके झांसी, जालौन सहित कई जनपदों में यह शर्मनाक प्रथा कायम है और इंसान को इंसान का मल अपने सिर पर उठाना पड़ता है।
निकाय नहीं लगा सके कुप्रथा पर रोक सिर पर मैला ढोने की प्रथा को रोकने के लिए कानून बनाया गया है और निकायों व जिला प्रशासन को जिम्मेदारी सौपी गई है कि इस प्रथा को रोकने के साथ ही इससे जुड़े लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था की जाए लेकिन बुंदेलखंड के सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि इस कुप्रथा से जुड़े लोगों को मुख्यधारा में जोड़ना तो दूर सरकार इस समस्या को स्वीकार ही नहीं करतीं। ऐसे में हालात यह हैं कि इस कुप्रथा की चपेट में आये लोग इक्कीसवीं सदी में भी इस अमानवीय काम को करने को मजबूर हैं।
लखनऊ में गूंजी आवाज, अब दिल्ली कूच होगा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के अवसर पर रविवार को लखनऊ में विधान सभा के सामने महिलाओं ने इस कुप्रथा के खिलाफ प्रदर्शन किया। बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के बैनर तले आयोजित इस प्रदर्शन में बुंदेलखंड के कई जिलों से आयी महिलाओं ने सिर पर टोकरी, तशले और झाड़ू लेकर प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारी महिलाओं ने परिवार के पुनर्वास की मांग करते हुए चेतावनी दी कि उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ तो वे दिल्ली में प्रदर्शन करने को मजबूर होंगे।