बच्चों के स्कूल यूनिफार्म का पैसा सरकार अभिभावकों के खाते में भेजती है और कई बार अभिभावक उस पैसे को दूसरे मद में खर्च कर देता है। इस स्थिति में यदि बच्चा स्कूल यूनिफार्म में नहीं आता तो शिक्षक ही जिम्मेेदार माना जाएगा। प्रदेश में ऐसे अनेक विद्यालय हैं, जो शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। कई जगहों पर तो शिक्षामित्र पर ही बच्चों का भविष्य निर्भर है। ऐसे में शिक्षकों की ड्यूटी चुनाव में बीएलओ, बीएलओ सुपरवाईजर, मतगणना और अन्य कार्यो में लगती है तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पूरी तरह ठप्प हो जाती है। स्कूल चलो अभियान के तहत आउॅट ऑफ स्कूल बच्चों के चिंहिकरण, पंजीकरण, नामांकन, परिवार सर्वे आदि कार्य करना मजबूरी बनी हुई है।
शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य करवाने को लेकर उच्च न्यायालय ने कई बार नाराजगी भी प्रगट किया है। उच्च न्यायालय ने शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य नहीं कराए जाने को लेकर स्पष्ट कहा भी है। लेकिन लाल फिताशाही और सरकारी तंत्र को इससे फर्क नहीं पड़ता। चाहे यातायात जागरुकता सप्ताह हो, चाहे आयुष मंत्रालय के औषधीय वाटिका लगवाने का अभियान हो या पर्यावरण संरक्षण हर कार्य में शिक्षकों की सहभागिता जरुरी हो गया है।
परिषदीय विद्यालयों में परिचारक या प्यून की नियुक्ति न के बराबर है। ऐसे में विद्यालय की साफ-सफाई, समय से स्कूल खोलना, समय-सारणी लिखना, फूल-पौधों में पानी देना और बीईओ कार्यालय से मांगी गई सूचनाओं को व्यवस्थित करके भेजना। इतना ही नहीं, इन विद्यालयों में क्लर्क तो होते नहीं इसलिए प्रेरणा पोर्टल अपडेट करना, छात्रों का डाटा फीड करना, प्रमाणिकरण करना, यू डाइस पोर्टल पर बच्चों की संख्या और डाटा अपलोड करना।