हाड़ातोड़ मेहनत
जितनी मेहनत मखाने को तैयार करने में लगती है, उतनी अन्य किसी मेवा में नहीं लगती। उपभोक्ताओं तक सहज ढंग से उपलब्ध होने वाले मखाना को तालाबों से निकालने से लेकर लावा बनाने तक की प्रकिया इसके मजदूरों के लिए काफी पीड़ादायक होती है। तालाब की सतह से मखाना का फल निकालना परेशानी भरा होता है। इस दौरान मखाना के फल से लगे कांटे की चुभन से मजदूरों की आह निकल जाती है। गोताखोर की तरह प्रतिदिन तकरीबन 12 घंटे तक तालाब में डूबकी लगाकर पहले तालाब से मखाना फल निकालने, फिर उसकी सफाई कर धूप में सूखाने के बाद चूल्हा पर इसे भूनकर मखाना लावा तैयार किया जाता है।
सिर्फ 3 माह मजदूरी
जुलाई से लेकर सितंबर, तीन माह तक मखाना से जुड़े मजदूरों को मखाना निकालने का कार्य होता है। शेष नौ माह इन्हे मछली मारने से मिलने वाले मजदूरी से परिवार का भरण-पोषण के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा सहित अन्य जिम्मेवारी का निर्वहन करना होता है। मेहनताना के रूप में प्रतिदिन दो से तीन सौ रुपये ही नसीब हो पाते हैं। जबकि, मखाना कारोबारी मखाना ऊंची कीमत पर बेचकर लाखों की आमदनी करते हैं। जिले के करीब 18 हजार मखाना मजदूरों को बच्चों की पढ़ाई, विवाह या फिर अन्य जरूरतों पर रुपयों के लिए मखाना कारोबारियों से कर्ज लेना पड़ता है। इनके कर्ज लेने की मजबूरी का फायदा मखाना कारोबारी उठाते हैं।
कर्जे के एवज में मजदूरी
महज कुछ हजार रुपये कर्ज के एवज में इन्हे महीनों तक तालाब से मखाना फल निकालने पड़ते हैं। मखाना मजदूर को मजदूरी में राशि नहीं मिलती है। उन्हे कारोबारियों द्वारा दिए गए मखाना फल के वजन के हिसाब से मखाना का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। कारोबारियों से मजदूरी के तौर पर मिलने वाले मखाना को बेचकर मिलने वाले राशि से मजदूरों को संतोष करना होता है। रहिका प्रखंड के मत्स्यजीवी सहयोग समिति लिमिटेड के मंत्री सह कोषाध्यक्ष झड़ी लाल मुखिया ने बताया कि मखाना मजदूरों के शोषण रोकने के लिए कारगर कदम उठाना चाहिए। उद्यान विभाग द्वारा सब्सिडी का लाभ दिया जाता है। मगर, मजदूरों के लिए कोई लाभ की सुविधा नहीं दी जा रही है। उद्यान विभाग या मत्स्य विभाग द्वारा भी मजदूरों के लिए कोई कल्याणकारी योजना का लाभ नहीं मिल रहा है।