रॉ के एक रिटायर्ड अफसर ने बताया था कि 1942 में अंग्रेज खुफिया का एक काम कांग्रेस के अंदर अपना एजेंट फिट करना था। यह एजेंट बढ़िया कांग्रेसजन होता था और बापू का प्रिय होता था। दिखावे में वह दिन रात कांग्रेस के काम में जुटा रहता था लेकिन काम अंग्रेजी हुकूमत के लिए करता था। बाद के दिनों में कांग्रेस ने भी इसी पैर्टन को अपनाया और विपक्षी दलों में अपने एजेंट फिट कर दिया। इसका फायदा उसे अपने विरोध में रची जा रही रणनीति का पता पहले चल जाता था।
इंदिरा गांधी को इसमें दक्ष माना जाता था। कांग्रेस के इस चाल को कभी उनके करीबी रहे युवा तुर्क के नाम से चर्चित जनता पार्टी के अध्यक्ष स्व. चंद्रशेखर ने इसे विरोधी दलों में एका न होने पाए इसलिए इसे शासक दल की रणनीति का हिस्सा कहा था। यह सवाल उनसे इसलिए किया गया था कि तब उनके पार्टी के मजबूत स्तंभ रहे मौजूदा भाजपा सांसद सुब्रण्मयन स्वामी को स्व. इंदिरा गांधी का करीबी कहा जाता था। अपने स्वभाव के अनुकूल सुब्रण्मयन स्वामी तब स्व चंद्रशेखर के प्रति भी मुखर रहा करते थे।
विरोधी दलों में इंदिरागांधी के करीबियों में सुव्रमण्यम स्वामी के अलावा भाकपा में योगेंद्र शर्मा, लोकदल के सांसद सतपाल मलिक तथा भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी का नाम शुमार था। इसके अलावा विरोधी दलों के और भी कई सांसद ऐसे थे जो अपने दल में कहने मात्र के लिए थे, असल में वे इंदिरा के साथ थे।
बीजेपी के तूफानी नेता अटल विहारी बाजपेयी की चिंतन दशा आरएसएस से सदैव ही भिन्न रही है। अपने छात्र जीवन में वे भले ही आरएसएस की शाखाओं में जाते रहे, लेकिन कम्युनिस्टों के साथ छात्र फेडरेशन में भी काम करते रहे। वहां से ही उन्होंने धर्म निरपेक्षता और प्रथम समाजवादी देश सोवियत संघ से प्रेमभाव ग्रहण किया। बाद में जब आरएसएस ने अपना राजनीतिक दल गठन करने के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी को राजी कर लिया तो वाजपेयी ने उनके निजी सचिव के रूप में उच्च स्तरीय राजनीतिक दांव पेंचों और पार्टी के लिए साधन जुटाने के उपायों में दक्षता प्राप्त की जिससे उन्हें जनसंघ में सर्वोच्च स्तर पर पहुंचने में बड़ी सहायता मिली।
उन दिनों भी वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी से अधिक जवाहर लाल नेहरू की प्रतिभा और सूझबूझ के कायल थे। नेहरू की गुटनिरपेक्षता नीति को वे बड़ी अच्छी तरह समझते थे। जनता पार्टी के शासन काल में उन्हें दरकिनार कर प्रधानमंत्री मोरारजी देशाई ने सुव्रमण्यम स्वामी को अपना सलाहकार और अप्रत्यक्ष रूप विदेश मंत्री बना दिया था। दरअसल यही से वाजपेयी और स्वामी के बीच शत्रुता की शुरूआत हुई जो वाजपेयी के जाने तक बनी रही।
जानकार बताते हैं कि यह आकस्मिक नहीं था जब वाजपेयी ने 1965 में भारत पाक युद्ध के समय और फिर 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी की भूमिकाओं की सराहना की और उन्हें साक्षात दुर्गा का अवतार तक कह डाला था। वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने तक वैदेशिक मामलों में श्रीमती गांधी की नीति रीति के समर्थक रहे। वे जनसंघ को और उसके बाद जनता पार्टी और अब भाजपा को आरएसएस की हिंदू सांप्रदायिकता की विचारधारा से मुक्त करने के लिए धैर्य पूर्वक संघर्ष करते रहे हैं।
यही वजह रही कि जनता पार्टी के विखंडन के बाद जब उसमें शामिल जनसंघ घटक के लोग अलग हुए और अपनी पहली बैठक की तो उसमें आरएसएस से संबंधित लोग लालकृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे लेकिन बैठक में आम सदस्य वाजपेयी के पक्ष में थे। यह नजारा देख आडवाणी को बैकफुट होना पड़ा और वैसे भी वे कोई टकराव नहीं चाहते थे। आगे चलकर आरएसएस ने आडवाणी की स्थिति मजबूत करने के लिए बाजपेयी पर दबाव डाला और कहा कि आडवाणी पार्टी के एक मात्र महासचिव हों और दल की नीति संबंधी एक मात्र प्रवक्ता भी हों।