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योगी आदित्यनाथ के स्मृति चिन्ह से नेपाल में फिर शुरू हुआ बुद्ध जन्मस्थली लुंबिनी विवाद

locationमहाराजगंजPublished: Oct 11, 2018 03:12:31 pm

नेपाली सांसद को दिए गए स्मृति चिन्ह में सिद्धार्थनगर में बुद्ध जन्मस्थली लिखने पर नेपाल में विरोध।

Momento

स्मृति चिन्ह

यशोदा श्रीवास्तव

महराजगंज। नेपाल के लुंबनी को गौतम बुद्ध की जन्मस्थली को लेकर फिर विवाद छिड़ गया है। इस बार नेपाल के नेपाली कांग्रेस सांसद अभिेषेक प्रताप शाह को दिए गए एक स्मृति चिन्ह से विवाद का जन्म हुआ है। सिद्धार्थनगर जिले के शोहरतगढ़ में आए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रिय सड़क मंत्री नितिन गडकरी के कार्यक्रम में वतौर विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित नेपाली सांसद के सम्मान में जो स्मृति चिन्ह दिया गया उसमें लिखा है कि बुद्ध की जन्मस्थली जनपद सिद्धार्थनगर में है। नौ अक्टूबर को केंद्रिय सड़क मंत्री गडकरी ने शोहरगढ़ में बौद्ध सर्किट का शिलान्यास किया था। इस सर्किट से श्रावस्ती, पिपरहवा तथा कुशीनगर को जोड़ा जाना है। इसके निर्माण से बुद्ध से जुड़े जिले बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर और कुशीनगर जिले भी जुड़ेंगे। नेपाली सांसद की ओर से इस स्मृति चिन्ह को स्वीकार करने से नेपाल में उनका विरोध शुरू हो गया है और उनके खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगाए गए हैं।
बता दें कि बुद्ध की जन्मस्थली नेपाल के लुंबनी में घोषित किया जा चुका है लेकिन पुरातत्वविद और इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद रहा है और सबके अपने अपने दावे रहे हैं।ब्रिटिश से प्रकाशित बुद्ध से जुड़ी एक पुस्तक में बुद्ध की जन्मस्थली सिद्धार्थनगर जिले के उत्तर पिपरहवा को होना बातया गया है। सिद्धार्थनगर के शिक्षाविद स्व रामशंकर मिश्र पिपरहवा को बुद्ध की जन्मस्थली घोषित करने की मांग पर ताउम्र अड़े रहे। सिद्धार्थनगर के लोगों का अभी भी मानना है कि राजनीतिक कारणों से पिपरहवा के बजाय लुंबनी को बुद्ध की जन्मस्थली घोषित करने के लिए भारत की ओर से वाकओवर दिया गया था। पिपरहवा को कालांतर में कपिलवस्तु कहा गया जिसे बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन की राजधानी कहा गया है। साथ ही यह भी कि बुद्ध ने अपने जीवन के 29 वर्ष यहीं बिताए। इसलिये इसे जन्मस्थली न कह कर बुद्ध की क्रीड़ास्थली कहा गया।
इसके पहले गत वर्ष दिसंबर में सिद्धार्थनगर आए यूपी के सीएम आदित्यनाथ ने सिद्धार्थनगर को अंतराष्टीय महत्व का स्थान दिलाने की घोषणा और फिर इसके बाद पीएम मोदी का इस जिले के विकास में स्वयं दिलचस्पी लेने की घोषणा से बुद्ध की जन्मस्थली को लकर नए सिरे से बहस छिड़ने के कयास लगाए जा रहे थे। नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार के सत्तासीन होने के बाद इस बहस के जोर पकड़ने की चर्चा तेज हो रही है। इसके पीछे चीन और पाकिस्तान की गोद में बैठने को बेताब नेपाल को सबक सिखाना भी एक वजह हो सकता है।
बता दें कि जो आज सिद्धार्थनगर जिला है वह पूर्व में बस्ती जिले का हिस्सा था। 1975 में नौगढ़ तहसील के उत्तर ओर स्थित पिपरहवा नामक स्थान के कपिलवस्तु के रूप में प्रमाणित हो जाने के बाद बस्ती जिले के उत्तरी हिस्से को अलग कर सिद्धार्थनगर के नाम से अलग जिले की मांग जोर पकड़ने लगी। लंबी जद्दो जहद के बाद दिसंबर 1988 में बस्ती जिले के डुमरियागंज, बांसी तथा नौगढ़ तहसील को अलग कर सिद्धार्थनगर के नाम से नए जिले का सृजन हुआ। बाद में इस जिले में इटवा और शोहरगढ़ नाम से दो और तहसीलों का गठन हुआ। वर्तमान में यह पांच तहसीलों और पांच विधायकों तथा एक संसदीय क्षेत्र वाला जिला है। जिले की आवादी भी सामान्य जिलों की तरह करीब 22 लाख है।
भगवान बुद्ध के नाम पर जितनी तेजी से नए जिले का सृजन हुआ उतनी तेजी से कपिलवस्तु का विकास नहीं हुआ। भगवान बुद्ध के जन्मस्थली को लेकर विवाद से पर्दा नहीं हटा है। भारत की बेवकुफी और हमारे राजनेताओं की शिथिलता रही कि हम कपिलवस्तु को भगवान बुद्ध की जन्मस्थली साबित करने में चूक गए। नेपाल का लुंबनी भगवान बुद्ध की जन्मस्थली के रूप में विख्यात है। विवाद यह है कि जब कपिलवस्तु भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन की राजधानी है तो बुद्ध की जन्म स्थली लुंबनी कैसे हो सकती है। लंबनी बुद्ध का ननिहाल है।
महापरिनिर्वाण युग से स्प्ष्ट होता है कि कपिलवस्तु के शाक्यों ने भगवान बुद्ध का अवशेष प्राप्त कर उस पर स्तूप निर्माण करवाया लेकिन मुस्लिम शासनकाल में बौद्ध धर्म प्रायः लुप्त हो गया था,अनके बुद्ध स्थल इतिहास के अंधकार में खो गए थे। कपिलवस्तु भी इतिहास के अंधकार में खोया हुआ था। भगवान बुद्ध की जन्म स्थली को लेकर इतिहासकार और पुरातत्वविद् भी एक मत नही रहे। 1860 में स्थापित भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के प्रथम डायरेक्टर जनरल ए कर्निघंम को बौद्ध गया,सारनाथ श्रावास्ती सहित अनेक बुद्ध स्थलों को संसार के सामने लाने का श्रेय हासिल है।
कर्निघम अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास भूगोल, में बस्ती जिले के नगर खास को संभावित कपिलवस्तु मानते हैं। इसी तरह कारलाइन बस्ती जिले के ही मुइलाडीह परगना मंसूरनगर के खंडहरों में कपिलवस्तु की तस्वीर निहारते हैं। 1890 में फ्युहर ने लुंबनी का प्रसिद्ध अशोक स्तंभ ढूढ लिया जिसके आधार पर उन्होंने लुंबनी से कुछ दूरी पर स्थित तिलौराकोट को कपिलवस्तु के रूप में पहचान लेने का दावा किया। सन् 1890 में पीसी मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ,नेपाल की तराई कपिलवस्तु की प्राचीनता, में दो चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण के आधार पर तिलौराकोट को कपिलवस्तु माना है।
इसके पूर्व बर्डपुर के अंग्रेज जमींदार पे पे ने पिपरहवा के भग्नावशेषों में जो सबसे उंचा स्थान था, उसे खुदवाय। खुदाई के दौरान एक बड़ा पत्थर का बाक्स मिला था। उस बाक्स में मिले बस्तुओं में एक धातु भी था जिस पर ब्राम्ही लिपी में कुछ लिखा हुआ था। ब्राम्ही लिपि के जानकारों से पढ़वाया गया तो यह लिखा पाया गया कि यह अस्थि भगवान बुद्ध की है जिसे शाक्य वंश के लोगों को सौंपा गया है। विसेंट स्मिथ जैसे विद्वानों ने भी पिपरहवा को ही कपिलवस्तु से समाकृत किया है। कपिलवस्तु भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन की राजधानी रही या नही यह विवाद भी करीब 85 वर्षो तक बना रहा। इस बीच पिपरहवा को भगवान बुद्ध की जन्मस्थली घोषित करने की मांग भी जोर पकड़ती रही। 1971 से 1975 तक भारत सरकार के पुरातत्वविद् केएम श्रीवास्तव के नेतृत्व में पिपरहवा नामक स्थान की खुदाई कर कपिलवस्तु की खोज हुई। और इसे भगवान बुद्ध की जन्मस्थली माना गया।
इधर पिपरहवा के कपिलवस्तु यानी भगवान बुद्ध की जन्मस्थली के रूप में प्रमाणित होते ही नेपाल सक्रिय हो गया और उसने अपने भूभाग पर स्थित लुबनी जो बुद्ध का ननिहाल है उसे बुद्ध की जन्म स्थली के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। विश्व के बुद्ध अनुयायी वाले देशों के बुद्धिष्टों का पिपरहवा आना जाना शुरू हो गया। श्री लंका के पूर्व राष्टपति तक पिपरहवा आए और यहां की मिट्टी को माथे पर लगाकर उसे साथ ले गए। पिपरहवा आने जाने वाले बुद्ध अनुयायी नेपाल सीमा के करहवर बार्डर से लुंबनी भी जाते थे। इस बार्डर से नेपाल का लुंबनी महज आठ किमी की दूरी पर है। इसी रास्ते बुद्धिस्ट काठमांडू तक जाते थे।
पिपरहवा में बुद्धिष्टों की आवाजाही से घबड़ाया नेपाल ने सबसे पहले 1980 में ककरहवा बार्डर से नेपाल आने जाने पर रोका लगा दी और विश्व पर्यटक और बृद्धिष्ट अनुयायियों को आर्कषित करने के लिए उसने लुंबनी के विकास पर जोर दिया। अर्तराष्टीय बुद्ध सम्मेलनो के जरिए नेपाल ने बुद्ध अनुयायी वाले देशों को अपनी ओर आर्कषित किया। नतीजा यह रहा कि लुंबनी आज भगवान बुद्ध की जन्मस्थली के रूप में पहचान बना पाने में कामयाब हो गया और असली जन्म स्थली कलिवस्तु उपेक्षा का देश झेलने को विवश है।
काफी पहले जब कपिलवस्तु का अस्तित्व प्रकाश में आया था तभी केंद्र सरकार ने यहां के 25 वर्ग किमी क्षेत्रफल को विनयमित क्षेत्र घोषित कर इसके विकास की 250 करोड़ की योजना तैयार की थी। इसके अंर्तगत बुद्ध से जुड़े स्मारक मंदिर तथा अन्य बहुत सारे स्थलों का निर्माण शमिल था। इसमें बुद्ध अनुयायी वाले विश्व के 30 देशों को मंदिर या कुछ और स्मारक के निमार्ण के लिए भुमि भी उपलब्ध कराने का प्रावधान था। बाद में बुद्ध के जन्म स्थली के विवाद और भारत सरकार की शिथिलता के साथ हमारे स्थानीय जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण कपिलवस्तु विकास के रास्ते से पिछड़ता चला ही गया बुद्ध की जम स्थली की अपनी पहचान भी नहीं कायम रख सका।
पहले युपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के इस जिले को अंर्तराष्टीय फलक पर पहचान दिलाने की घोषणा और उसके बाद पीएम मोदी द्ारा सिद्धार्थनगर को पिछड़े जिले में शामिल कर इसके विकास का वादा करना और अब नेपाली सांसद को बुद्ध की जन्मस्थली सिद्धार्थनगर में होने के उल्लेख का समृति चिन्ह देने से बुद्ध की जन्मस्थली पर नई खोज और बहस की संभावना दिखने लगी है।
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