कांग्रेस के दावे के मुताबिक यदि महराजगंज की सीट कांग्रेस के हिस्से में आ रही है तो यहां गठबंधन से दावेदारी जता रहे बाकी दलों का क्या होगा? और फिर एक सवाल यह भी है कि, महराजगंज सीट यदि कांग्रेस के खाते में जा रही है तो उम्मीदवारी का झंझट तय है। तीन दशकों के राजनीतिक इतिहास में यह सीट कांग्रेस के लिए कमजोर रही है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में जितेंद्र सिंह लोकसभा के लिए चुने गए थे। उसके लंबे अरसे बाद 2009 में स्व हर्षवर्धन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे। चुनावी इतिहास को देखें तो इस सीट के कांग्रेस के खाते में जाने की कोई खास वजह नहीं है। लेकिन अंदरखाने से ज्ञात हुआ है कि, कांग्रेस लोकसभा चुनाव में सर्वण व बैकवर्ड कार्ड जमकर खेलने की तैयारी में है।
देवरिया जिले के केशव यादव को युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के पीछे भी यही मंशा है। इसी रणनीति के तहत ही पार्टी महराजगंज और पडरौना में वैकवर्ड उम्मीदवार बनारस में सवर्ण और डुमरियागंज में मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है। बनारस से अजय राय पडरौना से आरपीएन सिंह (कुर्मी ठाकुर) और महराजगंज से विरेंद्र चौधरी उम्मीदवार हो सकते हैं। महराजगंज से गठबंधन दलों के दूसरे राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की बात करें तो सपा और बसपा का भी अपना अपना दावा है।
मौजूदा समय में यद्दपि की इस सीट पर बीजेपी का कब्जा है, लेकिन दूसरे नंबर पर बसपा रही है। सपा तीसरे और कांग्रेस चौथे नंबर पर थी। 2009 के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो इस सीट पर बसपा का हक बनता है। बसपा ने विधानपरिषद के पूर्व सभापति गणेश शंकर पांडेय को हरी झंडी दे दी है तो सपा के बैनर पर चुनाव लड़ने वालों की लंबी कतार है। बसपा के जिलाध्यक्ष नारद राव का कहना है कि, हम लोग चुनाव की तैयारी में लग गए हैं और ज्यादा संभावना पूर्व सभापति जी (गणेश शंकर पांडेय) के ही चुनाव लड़ने की है, जबकि सपा के जिलाध्यक्ष राजेश यादव ने इस सीट पर सपा के लड़ने की संभावना जताई है।
अब गठबंधन का उम्मीदवार किस दल का होता है। इसे लेकर राजनीतिक हलचल स्वाभाविक है। ज्यादे चर्चा सपा और बसपा की ही थी, लेकिन मोदी सरकार के चार साल के पोल खोल कार्यक्रम में शिरकत करने आए राणा गोस्वामी के संबोधन से चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। सोमवार को कचहरी से लेकर चाय पान की दुकानों पर गठबंधन उम्मीदवार को लेकर ही चर्चा चलती रही।