क्षिप्रा माथुर छह महीने में छह स्कूल। 250 बच्चे। पढ़ाने वाले 30 वालंटियर्स। 200 कतार में। आसमान की छतरी। सख्त जमीन का बिछौना। मगर ठिकाना एकदम महफूज। सौ फीसद सुकून। शत प्रतिशत मुस्कान। सोशल मीडिया पर टकराने के बाद किसी दोस्त ने जिक्र किया था विवेक का। दिल्ली में मुलाकात हुई कर्नाटक के इस नौजवान से। सेव चाइल्ड बैगर्स नाम से ये स्कूल सडकों के सहारे जीने वाले उन बच्चों के लिए हैं जिनका बचपन छटपटाहट में बीत रहा है। मां को खून की जरूरत के दौरान हुई मुष्किल से सीख लेकर कर्नाटक के एक शहर में ब्लड बैंक की मुहिम में पहले से जुटा है विवेक मंजूनाथ। इसी मिशन को बढ़ाने, बिना किसी जान – पहचान अनजान शहर में आया था। कुछ दिन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बिताने पड़े तो भीख मांगने वाले, खानाबदोश, यतीम या बैगर्स गैंग के चंगुल में फंसे बच्चों के करीब आया। झलक भर देख पाई इनके रिश्ते की। गुजर चुकी मां की बीमारी में दिन रात गुब्बारे बेच कर हर दिन अस्पताल में पांच सौ रूपए जमा करवाने वाले आकाश की मासूमियत, चाइल्ड होम की ज्यादतियों से भागकर पढ़ाई की लगन वाले अनाथ कृष्णा की झिझक, नशे के आदी हो चुके सुन्दर का हर दिन स्कूल आकर अपनी कमजोरी से उबरने की कोशिश। समझ आया इन्हें पढ़ाने के लिए कितना सब्र चाहिए। वालंटियर्स के दुलार से बंधे ये बच्चे कुछ देर अपना काम और तकलीफें छोड़कर पालिका पार्क, प्रेम नगर, लक्ष्मी नगर, खोडा विलेज, नांगलोई मेट्रो स्टेशन और फ्लायओवर, खिड़की एक्सटेन्शन सहित छह जगहों पर चल रहे इन स्कूलों में आते हैं। कलम – किताब में डूब कर खुशी के खजाने का रास्ता तलाशते हैं। भीख मांगने या सडक पर सामान बेचने वाले बच्चों को देखकर कभी किसी ने दुत्कारा होगा, कभी तरस खाया होगा। लेकिन उनकी मासूमियत पर फिदा होना, घर बार और खाने पीने की सुध बुध खोकर हमेशा इनके बीच ही रहने और इन्हें पढ़ाने की ठान लेना भला कौन कर पाता हैï इतना। जहां अमीर घरों के बच्चे लक्जरी गाडिय़ों से गरीबों को कुचलने, फिजूलखर्ची, बदजुबानी और बदचलनी के रिकॉर्ड तोड रहे हैं वहीं मामूली परिवारों के सपूत अब्दुल सत्तार ईधी जैसे नेक इन्सानों के नक्शे कदम पर चलते नजर आ रहे हैं। न गुमनामी की फिक्र न नाकामी की। परिवेश और परवरिश कैसे हमारे बच्चों को सही मायने में बड़ी सोच का मालिक बना देती है। ये सब इसकी मिसाल हैं। समाज सेवी और और ड्राइवर पिता ने विवेक को हमेशा अपने दिल की सुनना सिखाया। सैर कर दुनिया को खुद की नजर से देखने की आदत डाली। औरों के लिए अपना वक्त, उम्र, पैसा न्योछावर करने वाले इन युवाओं पर भला किसे नाज नहीं होगा। मैंने विवेक से पूछा – मां का मन तो नहीं मानता होगा। बोला हां, न हिन्दी ठीक से बोल पाता हूं न अंग्रेजी, पहली बार दिल्ली आया, घर नहीं लौटा, कई महीने एक वक्त खाना खाकर गुजारे। पर मां को नहीं बताता। पिता के हौसले से खड़ा हूं। दिल्ली के सेवा भावी लोगों ने मदद की। रहने को जगह दी। हर बच्चे की कहानी लिखने और भीख के धन्धे की अन्दरूनी हकीकत का दस्तावेज तैयार करने के लिए प्रेरित किया। फिलहाल चुनौती है कि टीम बनी रहे। काम व्यवस्थित हो जाए। चलते – चलते नन्हे आकाश ने सुना कि मैं जयपुर से हूं तो फट से बोला – मैं भी एक बार गया था जयपुर। मम्मी खो गई थी, उसे ढूंढने। और विवेक के लिपट गया आकाश। शुक्र है इन बच्चों की फिक्र करने वाले बहुत लोग हैं अब। प्यार देने वाला, उम्मीद बंधाने वाला और शिक्षा का दान करने वाला सबसे ऊंचा होता है। बस, सरकारों से एक गुजारिश है कि बच्चों की तस्करी पर सख्ती बरतें और भीख मांगने को मजबूर बच्चों को पढ़ाई की दहलीज तक पहुंचाएं।