गुरु की आज्ञा सुनकर शिष्य कुटिया को छोड़ चल दिया लेकिन चलते-चलते गुरु की आंखें बचाकर कुछ सिक्के चोरी से झोली में डाल लिए। दूसरे गांव में जाने के लिए उन्हें एक नदी पार करनी थी। जब वे नदी तट पर पहुंचे तो नाव वाले ने कहा कि मैं नदी पार कराने के दो सिक्के लेता हूं। संत के पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे वहीं आसन लगा कर बैठ गए।
सुबह से शाम हो गई न तो कोई भक्त आया और न ही नाव वाले का दिल पसीजा। अंधेरा होता देख शिष्य ने अपनी झोली से दो सिक्के निकाले और नाव वाले को देकर बोला कि अब हमें पहुंचाओ। उसे देख कर संत मुस्कुराते हुए बोले कि जब तक सिक्के तुम्हारे झोली में थे, हम कष्ट में रहे, तुमने त्यागा, हमारा काम बन गया।