मंडलाPublished: Oct 19, 2020 11:28:29 am
Mangal Singh Thakur
लगी रहती है श्रद्धालुओं की भीड़, चमत्कारी है छपरा वाली माता
ना कोई पुजारी ना पंडा, महिलाएं भी नहीं करती देवी मंदिर में प्रवेश
मंडला. जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर छपरा वाली माता मंदिर में इन दिनो भक्तों की कतार लग रही है। यहां पूजा कराने के लिए कोई पूजारी नहीं है। फिर भी भक्त अपनी शक्ति भक्ति के अनुसार पूजा अर्चना कर रहे हैं। इस मंदिर में महिलाएं भी प्रवेश नहीं करती हैं। बताया गया कि ग्राम हिरदेनगर में छपरा वाली दाई का स्थान स्थानीय क्षेत्र समेत पूरे जिले के भक्तों के लिए आस्था का केन्द्र है। यहां सागौन वृक्ष के नीचे माता का स्थान है। ग्राम के बुजुर्ग बताते है कि यह स्थान सैकड़ों वर्षो से है। हमारे पूर्वज बताते थे कि पूर्व में यहां केवल छोटी सी मढिय़ा स्थापित थी। जैसे जैसे लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती गई तो मढिया ने मंदिर का भव्य स्वरूप ले लिया। लेकिन गौर करने वाली बात है कि छपरा वाली दाई का कोई भी स्वरूप नहीं है। निराकार रूप में माता यहां स्थापित है। सिंहासन तो बना हुआ है किन्तु वह खाली है इसकी ही पूजा की जाती है।
लोगों की मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रृद्धलुओं की मनोकामनाएं अतिशीघ्रता से पूर्ण होती है। लेकिन उसके लिए मन्नत करना जरूरी है। अगर कोई मंदिर तक नहीं पहुंच पाता तो वह जहां है, वहीं से छपरा वाली माता को याद करे और मन्नत मांगे तो भी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। मंदिर में दूर दूर से श्रृद्धालु पूरे वर्ष भर पहुंचते है। क्षेत्र में ऐसे अनेको लोग है जिनकी मनोकामनाएं यहां पूर्ण हुई और वे आज भी माता की सेवा में समर्पित है। स्थानीय लोग बताते है कि मनोकामनाएं पूर्ण होने पर श्रृद्धालु बलि चढ़ाते हैं। अगर किसी श्रृद्धालु को बलि से परहेज है तो वह मलिदा, मिठाई, नारियल अगरबत्ती माता को अर्पित करता है। परंतु बरई व पिलई यहां का विधान है जो पूरे वर्ष भर चलता है।
महिलाओं व लड़कियों का प्रवेश वर्जित
बताया जाता है कि छपरा वाली दाई में लड़कियों का व महिलाओं का आना वर्जित है और उन्हेें यहां चढ़ा हुआ प्रसाद भी ग्रहण करने की अनुमति नहीं होती है। इस कारण महिलाएं और युवतियां यहां का प्रसाद ग्रहण नहीं करती है। छोटी छोटी कन्याएं मंदिर में आ सकती है तथा पुरूष भी सूर्य ढलने के पूर्व ही प्रसाद ग्रहण कर सकते है। यहां पर चैत्र व शारदेय नवरात्र में किसी भी प्रकार की बलि वर्जित है तथा नारियल भी नहीं फ ोड़े जाते।
नवरात्र के समय यहां खप्पर जवारे, कलश बोए जाते है। सालभर सुबह शाम आरती होती है। एक दिन महाआरती की जाती है। अष्टमी को हवन पूजन के बाद कन्या भोज किया जाता है। लेकिन इस बार माता के दरबार में सिर्फ भक्त पूजनए पाठ और दर्शन बस कर रहे है। यहां कोई आयोजन नहीं किए जा रहे है। इस बार कोरोना के चलते मंदिर में जवारे और कलश भी नहीं रखे गए है।
बुजुर्गो ने बताया कि ये सागौन के वृक्ष के नीचे स्थापित है और इसकी छाया पडऩे से इन्हें छपरा वाली दाई कहा जाता है। कुछ का कहना है कि इन्हें छपरा गांव से लाया गया था। भक्तों की मनोकामना पूरी होने पर वर्ष भर हर दिन कोई ना कोई यहां बलि देता है। खास बात यह है कि यहां कोई पुजारी नहीं है। लोग अपने आस्था के अनुसार पूजा अर्चना करते हैं। बलि देने के बाद प्रसाद घर भी नहीं ले जाते और ना ही महिलाओं को दिया जाता है। पुरुष वर्ग मंदिर के आसपास ही पूजा के बाद भोजन पका कर सामूहिक रूप से ग्रहण करते हैं।
इनका कहना है
भक्तों के लिए माता छपरा वाली आस्था का केन्द्र है। यहां माता का कोई स्वरूप नहीं है, निराकार रूप में यहां माता विराजमान है। यहां माता का सिंहासन तो बना है, लेकिन उस खाली जगह की ही पूजा अर्चना माता छपरा वाली के नाम से की जाती है। सागौन के वृक्ष के नीचे माता का स्थान था। भक्तों की मनोकामना पूरी होती गई और माता का छोटा सा स्थान मंदिर के रूप में भव्य स्वरूप ले लिया।
आचार्य संतोष महाराज, ऊँ श्री माँ रूकमणी देवी सदाव्रत आश्रम