मंडला

रेशम के कीड़े के जरिए देश भर में पहचान की तैयारी

जिले भर में पाले जा आ रहे लाखों रेशम के कीड़े

मंडलाApr 09, 2021 / 12:20 pm

Mangal Singh Thakur

Preparation of identification across the country through silkworms

मंडला. आदिवासी बहुल्य जिले को पूरे देश में विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए इस बार रेशम के कीड़ों को जरिया बनाया जा रहा है। इसे कीड़े को ककून भी कहते हैं। जिले भर में दो तरह के ककून पाले जा रहे हैं- एक मलबरी ककून और दूसरा टसर ककून। मलबरी ककून वह होता है जो सिर्फ शहतूत के पत्ते खाकर रेशम तैयार करता है और टसर ककून साजा, कौवा, बेर आदि पेड़ों के पत्तों से अपना भोजन ग्रहण करते हैं। जिले में 29 केंद्रों के जरिए लाखों की मात्रा में ककून पालन किया जा रहा है। इन सारे ककून का संग्रहण कर जिला मुख्यालय स्थित प्रोसेसिंग सेंटर में प्रोसेस के लिए और धागा उत्पादन किया जा रहा है और फिर इसे बबैहा स्थित प्लांट में भेजा जाता है जहां सिल्क की कच्ची साडिय़ां तैयार की जाती हैं।
मलबरी किलो में, टसर नग में
गौरतलब है कि मलबरी ककून का संग्रहण किलो में किया जाता है और टसर ककून का संग्रहण नग में किया जाता है क्योंकि मलबरी ककून आकार में छोटा और टसर ककून आकार में बड़ा होता है। जिले में मलबरी ककून का उत्पादन 23 हजार किलोग्राम प्रतिवर्ष और टसर ककून का उत्पादन 15 लाख नग प्रतिवर्ष किया जा रहा है। जिले में प्रतिवर्ष 2 हजार किलोग्राम रेशमी धागे का निर्माण किया जा रहा है और इससे सिल्क के वस्त्रों का उत्पादन 3-4 हजार मीटर प्रतिवर्ष किया जा रहा है।
शुरूआत आठ हजार से
बताया गया है कि जिले के बबैहा प्लांट में तैयार की जा रही सिल्क की कच्ची साडिय़ों को कलर के लिए अन्य जिले के प्लांट में भेजा जा रहा है और वहां से कलर प्रिंट के बाद उस साड़ी में आदिवासी बहुल्य जिले के कलाकार गोंडी चित्रकारी उकेरते हैं और तब इस एक सिल्क की साड़ी की कीमत 8 हजार रुपए तक जा पहुंचती है। गौरतलब है कि जिले में बनाई जा रही सिल्क की साडिय़ों की मांग तेजी से बढ़ रही है।

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