scriptकोल्हू का बैल और हम | baat karamat column rajasthan patrika 13 feb 2017 | Patrika News

कोल्हू का बैल और हम

locationमंदसौरPublished: Feb 13, 2017 11:17:00 am

Submitted by:

कई बार हम मित्रों के साथ पी-खाकर अपने खटारा स्कूटर के साथ घर लौट जाते हैं, सो जाते हैं और सुबह नींद से उठकर सोचते हैं कि रात को घर कैसे पहुंचे? यानी सब-कुछ बेहोशी में हुआ।

बचपन में जब हम अपनी नानी के संग तेली काका के घर तेल लेने जाते एक वर्तुल में बैल को घूमते देख रोमांचित हो जाते। अपनी आंखों पर पट्टी बांध अपने आप गोल-गोल घूम कोल्हू में सरसों पैलता और तेल अपने आप निकल जाता। 
हम सोचते, देखो बैल कितना समझदार है, सारा काम अपने आप कर रहा है। लेकिन जब हमारे पांव कब्र में लटकने लगे हैं तब लगता है कि हमारे और कोल्हू के बैल में क्या फर्क है? वह भी जीवन भर लीक पर चला और, हम भी कौनसी लीक तोड़ पाए?
जिंदगी को कोल्हू के बैल की तरह बिताने वाले इस देश में एक-दो नहीं, करोड़ों हैं। लोग पैदा होते हैं, पढ़ते-लिखते हैं, नौकरी करते हैं, ब्याह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, बूढ़े होकर मर जाते हैं। और, मरने के बाद तीये की बैठक के दिन सगे-संबंधी कहते हैं- वाह! क्या श्रेष्ठ जिंदगी जी। हम ऐसी जिंदगी को जिंदगी नहीं बैंगन का भर्ता मानते हैं। 
कई बार हम मित्रों के साथ पी-खाकर अपने खटारा स्कूटर के साथ घर लौट जाते हैं, सो जाते हैं और सुबह नींद से उठकर सोचते हैं कि रात को घर कैसे पहुंचे? यानी सब-कुछ बेहोशी में हुआ। 
हालांकि हमने भीड़-भरा लंबा सफर तय किया। यह किस्सा गृहस्थी में ही नहीं बल्कि राजनीति, कला और साहित्य में भी चल रहा है। कितने ही चुनावों में वोट दिया पर बेध्यानी, बेहोशी में। 

कभी जाति की लीक पर तो कभी दलों के दल-दल में पड़कर वोट दिए। होशपूर्वक कभी सोचा ही नहीं। साहित्य में हर रोज दर्जनों कहानी-कविता की किताब छप रहीं हैं। लेखक खुद की जेब से पैसा लगाकर साहित्य लिखवा रहे हैं पर सारा साहित्य वहीं कोल्हू के बैल की लीक पर लिखा जा रहा है। 
मजे की बात यह है कि अपनी आंखों पर पट्टी बांधे कुछ लेखक अपनी महानता का ढोल भी बजा रहे हैं। हां, जाग रहे हैं तो सिर्फ देश के नेता, जो कभी चुटकले पढ़ रहे हैं तो कभी जन्म पत्रियां बांच रहे हैं। बेचारी जनता बनी हुई है कोल्हू का बैल! 
व्यंग्य राही की कलम से 

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो