101 फीट ऊंचे मंदिर के शिखर पर 100 किलो वजनी कलश स्थापित है। इस पर 51 तोले सोने की परत है। जब मंदिर का निर्माण हुआ तो शिवना के इस पार मंदिर निर्माण की सामग्री रखी रहती थी तब स्वामीजी के प्रवचनों में कहा कि आते भी राम बोलो जाते भी राम तो जितने भी प्रवचन में श्रद्धालु आते थे वह सब लोग मंदिर निर्माण में लगे ईट पत्थर बालू सहित रेत सामग्री शिवना के इस बार ले आते थे।
बाण शिला या गंगावतरण जैसी दिखाई देने वाली दुर्लभ सफेद धारिया
19 जून 1940 को शिवना नदी से बाहर आने के बाद प्रतिमा नदी तट पर स्थापित रखी गई। फिर स्वामी प्रत्याक्षानंद महाराज चैतन्य आश्रम मेनपुरिया द्वारा 23 नवंबर 1961 को प्राण-प्रतिष्ठा की गई। कार्तिक पंचमी 27 नवंबर को मूर्ति का नामकरण पशुपतिनाथ के रुप में किया गया। इसके बाद मंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। मूर्ति का निर्माण विक्रम संवत 575 ई में शिवभक्त सम्राट यशोधर्मन की हूणों पर विजय के लगभग प्रतीत होता है। यशोधर्मन के काल मे निर्माणधीन प्रतिमा के ऊपर के चतुर्मुख ही बन पाए थे। जबकि नीचे के चार मुख निर्माणाधीन ही शेष रह गए थे।
काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ चतुर्मुख है और मंदसौर में पशुपतिनाथ अष्टमुखी है। इसमें बाल्यावस्था, युवावस्था, अधेड़ावस्था व वृद्धावस्था के दर्शन होते हैं। इसमें चारों दिशाओं में एक के ऊपर एक दो शीर्ष हैं। प्रतिमा में बाण शिला या गंगावतरण जैसी दिखाई देने वाली दुर्लभ सफेद धारियां हैं।
इतने बड़े शिवलिंग के विश्व में कही नहीं दर्शन
इतने बड़े शिवलिंग का विश्व में कहीं और दर्शन नहीं होता है। इसलिए यह विश्व प्रसिद्ध है। प्रतिमा के आठ मुख होने के साथ ७.३ फीट ऊंचाई है और ११.३ फीट गोलाई तो वजन 64065 किलो 525 ग्राम है। शिवना नदी के दक्षिणी तट पर बना अष्टमुखी का मंदिर आकर्षण हैं। आग्नेय शिला के दुर्लभ खंड पर निर्मित शिवलिंग की यह प्रतिमा है। 2.5- 3.20 मीटर आकार की इस प्रतिमा का वजन लगभग 46 क्विंटल 65 किलो 525 ग्राम हैं। सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से पशुपतिनाथ की प्रतिमा अपनी बनावट और भावभिव्यक्ति में उत्कृष्ट हैं। इस प्रतिमा के संबंध में यह संयोग ही रहा कि यह सोमवार को शिवना नदी में प्रकट हुई। फिर तापेश्वर घाट पहुंची एवं घाट पर ही स्थापना हुई। सोमवार को ही ठीक 21 वर्ष 5 माह 4 दिन बाद इसकी प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मंदिर पश्चिमामुखी है। पशुपतिनाथ मंदिर 90 फीट लम्बा 30 फीट चौड़ा व 101 फीट ऊंचा हैं।
२ हजार साल पुराने मंदिर में कुबेर के साथ विराजित है शिव
फोटो एमएन २१०५
खिलचीपुरा स्थित भगवान धनकुबेरजी के मंदिर (धोलागढ़ महादेव मंदिर) में कुबेर भगवान शिव के साथ गर्भगृह में विराजित है। वैसे तो यहां धनतेरस पर अधिक भीड़ रहती है, लेकिन मंदिर की प्राचीन मान्यताओं के कारण शिवरात्रि पर भी शिवभक्त पहुंचते है। शिव जी के साथ कुबेर की प्रतिमा स्थापित है जो पश्चिम मुखी है। देश भर में उत्तराखंड में केदारनाथ के बाद सिर्फ मंदसौर में ऐसी मूर्ति है। मंदिर गुप्तकालीन होने के साथ ही करीब २ हजार साल पूराना है। ३ फीट का द्वार है। ऐसे में कुबेर और शिवजी के दर पर पहुंचने के लिए सभी को झुककर ही जाना पड़ता है। इतना ही नहीं पश्चिम मुखी मुर्ति केदारनाथ के बाद देश में सिर्फ मंदसौर शहर में ही है। प्राचीन व ऐतिहासिक महत्व होने के कारण शहरवासियों के लिए यह आस्था का स्थान है। धनतेरस पर यहां सुबह ४ बजे से ही अभिषेक, श्रृंगार व आरती के आयोजन होंगे। इसके बाद दर्शनार्थियों के लिए इस खोला जाएगा। देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां भगवान धनकुबेरजी भगवान शिव, गणेश और माता पार्वती के साथ विराजित है। आज भी मंदिर को सामने से देखने पर तिरछा ही नजर आता है। पुरातत्वकारो के अनुसार इस मंदिर की आज भी कोई नींव नहीं है। मंदिर का जीर्णोद्वार भी मराठा काल में हुआ था और गुंबज बना था।
पूरे देश में केवल यहीं होती है तंत्र साधना
मान्यता है कि भगवान शिव के साथ धन के देवता कुबेर एक साथ विराजित होने से यह स्थान तंत्र क्रियाओं के लिए खास है। विद्वान पंडितो द्वारा यहां सिद्धियां प्राप्त की जाती है। रात्रि में साधक लोग मंदिर पंहुचकर तंत्र साधना करते है। साधना के समय साधको को एकांत पसंद है। देर रात्रि में मंत्रो के उच्चारण भी सुनाई देते है। देश में गुजरात के चाणोद में नर्मदा किनारे स्थित भगवान कुबेर भंडारी का मंदिर है। लेकिन वहां साधक साधना नहीं करते है साधना तो मंदसौर के धनकुबेर मंदिर में ही की जाती रही है। मंदसौर में धनतेरस को देशभर से श्रद्धालु आते है। मंदिर के प्रति उनकी अटूट आस्था है।