अंगारों पर चलने की यह कठिन परंपरा सौ साल से ज्यादा पुरानी है. हालांकि आस्था और भक्ति के इस रूप में अभी तक किसी को भी कोई दिक्कत नहीं आई है. यहां आए भक्तों ने बताया कि इन अंगारों पर चलने के बाद भी कभी कोई भक्त घायल नहीं हुआ है. यही कारण है कि इन दहकते अंगारों पर बच्चे भी बेखौफ होकर निकल जाते हैं.
क्षेत्र के जिला मुख्यालय के साथ ही अनेक ग्रामीण इलाकों में ऐसे आयोजन होते हैं. नवरात्रि के पहले दिन घट स्थापना से लेकर अंतिम दिन तक लोग मां की आराधना करते हैं और गरबा, रास सहित कार्यक्रम आयोजित होते हैं. नवमी के दिन भी दिनभर हवन-पूजन और माता का विसर्जन होता है. इसके बाद शाम को चूल का आयोजन किया जाता है.
कई ग्रामीण इसे वाड़ी विसर्जन भी कहते हैं. इसमें लोग अंगारों पर चलते हैं. खासतौर पर वे लोग दहकते हुए अंगारों पर नंगे पैर निकलते हैं जिनकी मन्नत पूरी हो चुकी रहती है.इसमें परंपरानुसार करीब आठ फीट लंबा और ढाई फीट चौड़ा गड्ढा खोदा जाता है जिसमें सूखी लकड़ियां जलाते हैं. जब अंगारे दहकने लगते हैं तब लोग इसपर चलते हैं.
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खास बात यह है कि देसी घी डालकर इन अंगारों को बाकायदा दहकाया जाता है. लाल हो चुके अंगारों की आंच तक से लोग सहम जाते हैं पर माता के भक्त जरा नहीं डरते. अंगार के दहकने के बाद माता के भक्त इनपर नंगे पैर चलते हैं. ग्रामीणों के मुताबिक इस चूल की प्रथा में अब तक कोई हादसा नहीं हुआ है.