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टोंक के पास टीलों के नीचे सो रहा सवा दो हजार साल पुराना शहर

Published: Mar 11, 2018 11:37:27 am

मालवा के राजकुमार ने जीत कर बनाया था राजधानी, छिपा हो सकता है ऐतिहासिक काल का भारत का सबसे बड़ा नगर

2200 year old city hidden in mounds in tonk

2200 year old city hidden in mounds in tonk

जयपुर। टोंक के पास नगर फोर्ट के दूर दूर तक फैले टीलों के मैदान के नीचे दस से बीस पच्चीस फीट नीचे एक पूरा नगर दुनिया के कोलाहल से दूर शांत वातावरण में सो रहा है। यहां बाइस सौ साल पहले एक ऐसा नगर आबाद था जिसमें हजारों लोग निवास करते थे। तत्कालीन मालवा की संभावित राजधानी में हर वो सुविधा थी जो एक समृद्ध नगर में होनी चाहिए। करीब 850 सालों तक आबाद रहने के बाद यह शहर एकाएक नष्ट हो गया। टोंक से करीब 30 किलोमीटर दूर वर्तमान नगर फोर्ट के पास स्थित इस क्षेत्र में अब भी थोड़ी सी खुदाई पर ही प्राचीन ईंटें व पुरावशेष निकलने लगते हैं जो इस बात की गवाही देते हैं कि वहां नीचे कोई न कोई शहर बसा है।
करीब डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेज पुरातत्वविद ए.सी.एल. कर्लाइली ने इस शहर की खोज की थी। दस साल पहले हुई खुदाई में इस शहर के अस्तित्व के और भी प्रमाण सामने आए। कर्लाइली ने रिपोर्ट ऑफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपूताना इन 1871-72 और 1872-73 में इस शहर के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। उन्हें यहां खुदाई करने के दौरान 6000 से ज्यादा सिक्के मिले जिनमें से अधिकांश पर मालवा जयते और मालवना जय लिखा था। उनके अनुसार जमीन में दबे इस शहर की उत्तर से दक्षिण की लम्बाई 1.568 मील और पूर्व से पश्चिम की चौड़ाई 1.739 मील थी। पुराने नगर पर बसे नए नगर को मिला कर पूर्व से पश्चिम की चौड़ाई करीब दो मील थी। तब भी इस पूरे इलाके में हर तरफ ईंटे ही ईंटे थीं।
आज भी यहां हर तरफ ईंटे ही ईटें निकलती हैं। इन ईटों की लम्बाई एक फीट छह इंच, चौड़ाई 1 फीट 5 इंच और मोटाई करीब चार इंच थी। वर्तमान सतह से 5-6 और दस फीट की गहराई में ही कई इमारतें दबी हैं। कर्लाइली के अनुसार आस पास के गांव वाले यहां से ईटें निकाल निकाल कर ले जाते थे। यह सिलसिला आज भी जारी है। आर्कियोलॉजिकल सर्वे के तत्कालीन महानिदेशक मेजर जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने कर्लाइली की रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है कि कर्लाइली को जो सिक्के मिले हैं, उनमें से अधिकांश पर जय मालवन लिखा है, और यह नाम 250 बीसी से लेकर 600 एडी तक मिलता है। अतः उनका निष्कर्ष था कि यह शहर अवश्य ही इस पूरी अवधि के दौरान आबाद रहा ।
नगर के बीच से गुजरती थी नहर दोनों किनारों पर बसा था शहर
कर्लाइली ने चार वर्गमील में फैले इस नगर का विस्तृत नक्शा बना कर छह मंदिर और पांच तालाबों को चिन्हित करने के साथ ही वहां छोटा माणक चौक, बड़ा माणक चौक, टकसाल टीला, कंगाली टीला, बड़ा मंडेला टोला, छोटा मंडेला टोला, जवाहिर बाजार और किलेबंदी के निशानों को चिन्हित भी किया है। कर्लाइली के मुताबिक एक बरसाती नाला गरवा तब भी मौजूद है जिसमें बरसात के समय बहुत पानी बहता है। भौगोलिक परिवर्तन से पहले यह नगर के दक्षिण हिस्से से बहने वाली नदी की एक सहायक धारा थी और इसके दोनो और नगर बसा है। नगर के नष्ट होने के बाद इस पुरातन जगह पर कुछ मंदिर लोगों द्वारा बाद में बनाए और पूजे गए हैं।
नाग वंश ने किया था स्थापित इसलिए कहलाया नगर
कर्लाइली के मुताबिक स्थानीय लोग इसे मान्धाता के पुत्र राजा मचुकुंद के द्वारा स्थापित किया बताते थे और वह एक सूर्यवंशी राजा था। टॉड के मुताबिक मान्धाता मध्य भारत के मालवा का राजा था। कर्लाइली ने नगर में मिले सिक्कों के आधार पर अनुमान लगाया है कि मुचुकुन्द ने नगर पर हमला कर यहां अपना अलग राज्य बनाया। कर्लाईली के मुताबिक वास्तव में इस शहर की स्थापना नाग वंश के लोगों ने की थी और यहां के मूल निवासी करकोट नागा थे। कर्लाइली को यहां ऐसे सिक्के भी मिले थे जिन पर नागवाहा महाजया और नागवाहा जया लिखा था। कर्लाइली के मुताबिक इसलिए इस शहर का नाम नागवाड़ा से अपभ्रंश होते हुए हैं नगर पड़।। कर्लाइली को यहां तांबे के छल्ले, तांबे की लम्बी पिनें अन्य वस्तुएं, ताम्बे के टूटे औजार, कुछ स्वर्ण आभूषण,मनके,कांच, शंख के बने आभूषण भी मिले ।
आखिर कैसे हुआ नष्ट, आज भी फैली है राख जैसी मिट्टी
इस बड़े भू भाग पर फैले नगर के नष्ट होने की कहानी रहस्यमय है। कर्लाइली ने अपनी रिपोर्ट में जहां एक ओर इसे महाभारत की कथा से जोड़ते हुए कालयवन के अन्त से उत्पन्न राख में इस नगर के दबने की बात कही है, वहीं दूसरी ओर वे महाभारत को कल्पना बताते हुए भौगोलिक परिवर्तन से ज्वालामुखी के समान उत्पन्न लावे के कारण नगर का नष्ट होना कहा है। कर्लाइली के मुताबिक उन्हें उस समय वहां खास तरह की राख जैसी मिट्टी मिली थी। आज डेढ़ सौ साल बाद भी वहां टीलों पर राख जैसी मिट्टी फैली हुई है। कर्लाइली भौगोलिक परिवर्तन के पक्ष में तर्क देते हुए नगर के किनारे किनारे नदी के बहाव क्षेत्र खजूरा खल को दर्शाते हैं जो जगह जगह से पट चुका है। उन्होंने लिखा है कि उन्हें कई टीलों में मानवीय अस्थियां भी दबी मिलीं। उनका निष्कर्ष था कि नगर किसी न किसी अचानक आई आपदा के ही कारण नष्ट हुआ है।
कभी रहते थे हजारों लोग आज टीबों पर फैली है शान्ति
पुरातत्व विभाग ने कर्लाइली की इस विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर 1942 से 1950 तक यहां खुदाई करवाई और तब यहां बड़ी मात्रा में सिक्के और आभूषण इत्यादि मिले। इसके साठ साल बाद 2008-09 में टी. जे. अलोने के निर्देशन में पुरातत्व विभाग ने इस शहर को जमीन से बाहर निकालने के लिए खुदाई प्रारम्भ की। तीन जगह खुदाई के दौरान भी सिक्के मिले जिन पर शेर, मोर, राजमुकुट जैसे चिन्ह बने हुए मिले।
इस खुदाई में शामिल पुरातत्व विभाग के सहायक अधीक्षक मनोज कुमार द्विवेदी बताते हैं कि वहां कई मूर्तियां भी मिलीं। उनके मुताबिक भी यह शहर भारत में ऐतिहासिक काल का सबसे बड़ा शहर हो सकता है जिसे खुदाई करके सामने लाने में हजारों मजदूरों के कई सालों की मेहनत लगेगी। हालांकि द्विवेदी कर्लाइली के इस शहर के लावा से नष्ट होने के निष्कर्ष से सहमत नहीं है और उनके मुताबिक यह शहर सिकुड़ कर भी दसवीं शताब्दी तक आबाद रहा हो सकता है। शहर के फैलाव को देखते हुए उनका अनुमान था कि उस दौरान यहां कि आबादी पांच से दस हजार रही होगी।
आज बस एक बोर्ड और झाड़ियों में छिपा खुदाई स्थल है निशानी
लम्बी दूर तक फैले ईटों के मैदान में इस प्राचीन नगर की निशानी के रूप में मांडकला के पास ही पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा है जिस पर इस जगह के संरक्षित स्मारक होने की सूचना लगी है। वहीं इस बोर्ड के थोड़ा ऊपर ही राख सी मिट्टी से गुजर कर एक टीले पर पुरातत्व विभाग की ओर से की गई खुदाई का स्थल मौजूद है। यहां सामने एक माताजी का मंदिर है। संभवतः कर्लाइली के नक्शे में इस मंदिर को वीरमा का देवड़ा के रूप में चिन्हित किया गया है।
इस खुदाई स्थल पर ढकी हुई प्लास्टिक अब दस साल बाद फट गई है और खुदाई में निकली कमरेनुमा जगहों में मिट्टी भर गई है। चारों और बेरतरतीब झाड़ियां उग आई हैं। फिर भी यहां ईटों की दीवारें साफ दिखाई देती हैं। पुरातत्व विभाग ने तीन माह चले कार्य के दौरान यहां दो अन्य जगहों पर भी खुदाई की थी लेकिन उन्हें बाद में मिट्टी से वापिस ढक दिया गया। अलोने के जयपुर सर्किल से स्थानान्तरण के बाद यहां कार्य रुक गया। स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक खुदाई का लाइसेंस उन्हें ही मिला हुआ था। उसके बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे ने उत्खनन के लिए अलग से ब्रांच बना दी और अब उत्खनन शाखा की दिल्ली इकाई ही इस शहर को जमीन से निकालने के बारे में कोई फैसला ले सकती है।
हर तरफ निकलती हैं ईंटें
गांव के सीताराम व राजेश बताते हैं कि नगर में कहीं भी खुदाई कर लें तो ईंटें निकलती हैं और लोग इन्हीं ईटों से अपना मकान बना लिया करते थे। पुरातत्व विभाग की रोक के बाद से इस पर कुछ लगाम लगी है।
डेढ़ सौ साल के बाद भी क्षेत्र का सीमांकन नहीं
पुरातत्व विभाग के पास नगर स्थित क्षेत्र का नक्शा तो है लेकिन वहां का सीमांकन के अभाव मे चारदीवारी तक नहीं करवा पा रहा है। इसके लिए विभाग ने टोंक जिला कलक्टर को 17 जनवरी को पत्र लिख कर नगर क्षेत्र से सहित कुल 6 स्मारकों का सीमाकंन करवाने का अनुरोध किया है ताकि विभाग इनके चारों और चारदीवारी बनवा सके।
नगर स्थित संरक्षित उत्खनन क्षेत्र एक विस्तृत भू भाग में फैला है। यहां विभाग ने 2008-9 में तीन जगह पर खुदाई करवाई थी। वर्तमान में विभाग ने वहां एक चौकीदार नियुक्त कर रखा है जो लोगों को उस क्षेत्र से ईंटें व अन्य पुरावशेष निकालने से रोकता है।
– प्यारेलाल मीणा, अधीक्षण पुरातत्वविद, जयपुर सर्किल
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