कर्लाइली ने चार वर्गमील में फैले इस नगर का विस्तृत नक्शा बना कर छह मंदिर और पांच तालाबों को चिन्हित करने के साथ ही वहां छोटा माणक चौक, बड़ा माणक चौक, टकसाल टीला, कंगाली टीला, बड़ा मंडेला टोला, छोटा मंडेला टोला, जवाहिर बाजार और किलेबंदी के निशानों को चिन्हित भी किया है। कर्लाइली के मुताबिक एक बरसाती नाला गरवा तब भी मौजूद है जिसमें बरसात के समय बहुत पानी बहता है। भौगोलिक परिवर्तन से पहले यह नगर के दक्षिण हिस्से से बहने वाली नदी की एक सहायक धारा थी और इसके दोनो और नगर बसा है। नगर के नष्ट होने के बाद इस पुरातन जगह पर कुछ मंदिर लोगों द्वारा बाद में बनाए और पूजे गए हैं।
कर्लाइली के मुताबिक स्थानीय लोग इसे मान्धाता के पुत्र राजा मचुकुंद के द्वारा स्थापित किया बताते थे और वह एक सूर्यवंशी राजा था। टॉड के मुताबिक मान्धाता मध्य भारत के मालवा का राजा था। कर्लाइली ने नगर में मिले सिक्कों के आधार पर अनुमान लगाया है कि मुचुकुन्द ने नगर पर हमला कर यहां अपना अलग राज्य बनाया। कर्लाईली के मुताबिक वास्तव में इस शहर की स्थापना नाग वंश के लोगों ने की थी और यहां के मूल निवासी करकोट नागा थे। कर्लाइली को यहां ऐसे सिक्के भी मिले थे जिन पर नागवाहा महाजया और नागवाहा जया लिखा था। कर्लाइली के मुताबिक इसलिए इस शहर का नाम नागवाड़ा से अपभ्रंश होते हुए हैं नगर पड़।। कर्लाइली को यहां तांबे के छल्ले, तांबे की लम्बी पिनें अन्य वस्तुएं, ताम्बे के टूटे औजार, कुछ स्वर्ण आभूषण,मनके,कांच, शंख के बने आभूषण भी मिले ।
इस बड़े भू भाग पर फैले नगर के नष्ट होने की कहानी रहस्यमय है। कर्लाइली ने अपनी रिपोर्ट में जहां एक ओर इसे महाभारत की कथा से जोड़ते हुए कालयवन के अन्त से उत्पन्न राख में इस नगर के दबने की बात कही है, वहीं दूसरी ओर वे महाभारत को कल्पना बताते हुए भौगोलिक परिवर्तन से ज्वालामुखी के समान उत्पन्न लावे के कारण नगर का नष्ट होना कहा है। कर्लाइली के मुताबिक उन्हें उस समय वहां खास तरह की राख जैसी मिट्टी मिली थी। आज डेढ़ सौ साल बाद भी वहां टीलों पर राख जैसी मिट्टी फैली हुई है। कर्लाइली भौगोलिक परिवर्तन के पक्ष में तर्क देते हुए नगर के किनारे किनारे नदी के बहाव क्षेत्र खजूरा खल को दर्शाते हैं जो जगह जगह से पट चुका है। उन्होंने लिखा है कि उन्हें कई टीलों में मानवीय अस्थियां भी दबी मिलीं। उनका निष्कर्ष था कि नगर किसी न किसी अचानक आई आपदा के ही कारण नष्ट हुआ है।
पुरातत्व विभाग ने कर्लाइली की इस विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर 1942 से 1950 तक यहां खुदाई करवाई और तब यहां बड़ी मात्रा में सिक्के और आभूषण इत्यादि मिले। इसके साठ साल बाद 2008-09 में टी. जे. अलोने के निर्देशन में पुरातत्व विभाग ने इस शहर को जमीन से बाहर निकालने के लिए खुदाई प्रारम्भ की। तीन जगह खुदाई के दौरान भी सिक्के मिले जिन पर शेर, मोर, राजमुकुट जैसे चिन्ह बने हुए मिले।
लम्बी दूर तक फैले ईटों के मैदान में इस प्राचीन नगर की निशानी के रूप में मांडकला के पास ही पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा है जिस पर इस जगह के संरक्षित स्मारक होने की सूचना लगी है। वहीं इस बोर्ड के थोड़ा ऊपर ही राख सी मिट्टी से गुजर कर एक टीले पर पुरातत्व विभाग की ओर से की गई खुदाई का स्थल मौजूद है। यहां सामने एक माताजी का मंदिर है। संभवतः कर्लाइली के नक्शे में इस मंदिर को वीरमा का देवड़ा के रूप में चिन्हित किया गया है।
गांव के सीताराम व राजेश बताते हैं कि नगर में कहीं भी खुदाई कर लें तो ईंटें निकलती हैं और लोग इन्हीं ईटों से अपना मकान बना लिया करते थे। पुरातत्व विभाग की रोक के बाद से इस पर कुछ लगाम लगी है।
पुरातत्व विभाग के पास नगर स्थित क्षेत्र का नक्शा तो है लेकिन वहां का सीमांकन के अभाव मे चारदीवारी तक नहीं करवा पा रहा है। इसके लिए विभाग ने टोंक जिला कलक्टर को 17 जनवरी को पत्र लिख कर नगर क्षेत्र से सहित कुल 6 स्मारकों का सीमाकंन करवाने का अनुरोध किया है ताकि विभाग इनके चारों और चारदीवारी बनवा सके।
– प्यारेलाल मीणा, अधीक्षण पुरातत्वविद, जयपुर सर्किल