2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनाया था अहम फैसला
आपको बता दें कि 2009 में समलैंगिकता के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा था कि आईपीसी की धारा 377 का प्रवाधान जिसमें समलैंगिकों के बीच शारीरिक संबंध को अपराध माना गया है, उससे मूलभूत मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। कोर्ट के इस फैसले के बाद व्यस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता मिल गई थी, लेकिन देश भर के कई धार्मिक संगठनों ने इस फैसले का विरोध किया और कहा यह अप्राकृतिक है। कई धार्मिक संगठनों के साथ-साथ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए आईपीसी की धारा 377 को फिर से वैध करार दे दिया था। लेकिन एक बार फिर से मामला गरमा गया है और इसकी सुनवाई बीते मंगलवार से सुप्रीम कोर्ट में शुरू हो चुकी है। सबसे हैरानी की बात यह है कि इस बार ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पूरे मामले से किनारा करते हुए दिखाई दे रहा है।
समलैंगिकता मामले पर केंद्र ने रखा पक्ष, शीर्ष कोर्ट अपने विवेक से करे फैसला
धारा 377 के खिलाफ नाज फाउंडेशन ने दायर की थी याचिका
आपको बता दें कि 2001 में नाज फाउंडेशन संस्था ने आईपीसी की धारा 377 के उस प्रावधान को हटाने की मांग की थी जिसमें कहा गया है कि समलैंगिक शारीरिक संबंध एक अपराध है। नाज फाउंडेशन को इस मामले में कई अन्य संगठनों का भी साथ मिला। इस मामले को लेकर पहली बार दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई। जिसके बाद एक लंबी सुनवाई हुई और कोर्ट ने इसे गलत करार देते हुए समलैंगिकता को सही बताया। कोर्ट ने कहा कि समलैंगिकता को यदि अपराध माना गया तो यह मूलभूत मानवाधिकारों का उल्लंघन होगा। हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को कानूनी तौर पर गलत बताते हुए धारा 377 को बरकरार रखा। हालांकि अब फिर से सुनवाई शुरू हो चुकी है और देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च अदालत इस मामले पर किया फैसला करती है। गौरतलब है कि भारत में आईपीसी की धारा 377 के मौजूदा प्रावधान के मुताबिक जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे एक अपराध माना जाएगा और इस मामले में 10 वर्ष की सजा या फिर उम्र कैद की सजा का प्रावधान है।