अलग और ज्यादा कुछ था तो वह यह कि इस बार मालगाड़ी की गार्ड भी महिला (दीपिका बैरागी) थी। यह यह सब सबसे ज्यादा राजस्व जुटाने वाले रतलाम रेलवे मंडल में ही हो रहा था। और ऐसा होने का यह पहला अवसर था, जब इस डिवीजन से गई किसी गाड़ी की पूरी की पूरी कमान महिलाओं के हाथ में रही। रतलाम से गोधरा तक करीब १८६ किमी के रेलवे ट्रैक पर महिलाओं ने खुद ४८ वैगन वाली मालगाड़ी न सिर्फ सफलतापूर्वक चलाई, बल्कि एक नया इतिहास भी रच दिया।
मंडल में इसके पहले कभी भी एक पूरी मालगाड़ी पर लोको और सहायक लोको पायलट के साथ महिला गार्ड नहीं रहती थीं, लेकिन रेलवे ने महिला शक्ति को पहचाना और भरोसा जताया तो परिणाम बेहद उत्साजनक सामने आए। रेलवे के इस नवाचार से यह भी साबित हो गया कि महिलाएं आज हर उस कार्य के लिए अपेक्षा के अनुसार परिणाम देने वाली बन गई हैं, जिसे पहले पुरुषों के लिए माना जाता था।
मालगाड़ी का संचालन इस मायने में भी अहम है, क्योंकि इसे यात्री गाड़ी की तरह निर्बाध ट्रैक नहीं मिलता। कई मर्तबा जंगल वाले इलाकों में मालगाड़ी को पटरी पर ही रोककर यात्री गाड़ी को पहले गुजारा जाता है। रात के समय असुरक्षा के हालात तो रहते हैं, साथ ही तत्काल सहायता के विकल्प भी कम ही होते है। ऐसे में ये महिलाएं जोश और उत्साह के साथ अगर रतलाम से गोधरा के आंचलिक ट्रैक पर सरपट गाड़ी दौड़ाते हुए समूची महिला जाति के हौसलों को पंख लगा दें तो यह कहा जा सकता है कि अब संकोच नहीं, ऊंची सोच का वक्त आ गया है।
इस नवाचार के लिए रेलवे के थिंक टैंक को भी दाद मिलनी चाहिए, क्योंकि सबसे पहले तो महिलाओं की काबलियत पर उसी ने भरोसा किया। अब इसका साकार रूप अन्य महिलाओं के लिए भी प्रेरणा की तरह उभरेगा। मालवा के जिलों में महिलाएं नवाचार के बजाय अपने लंबे घूंघट के चलते ज्यादा पहचानी जाती हंै, लेकिन अब परंपरा और आधुनिक दौर के साथ कदमताल का नया रूप महिलाओं को संबल प्रदान करेगा। आने वाले वक्त में निश्चित ही इस तरह के इतिहास खुद को दोहराएंगे।