उल्लेखनीय है कि भारत के आखिरी छोर को श्रीलंका से जोड़ने वाले और 48 किलोमीटर लंबे रामसेतु का सबसे पहला वर्णन वाल्मिकी कृत रामायण में मिलता है। पौराणिक साहित्य के आधार पर रामसेतु की संरचना को अत्यन्त प्राचीन माना जाता है परन्तु अभी तक ऐसा कोई भी वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है जिससे पता चल सके कि इसका निर्माण कब हुआ था और किस तरह हुआ था।
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3 वर्षों तक चलेगा प्रोजेक्ट
इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए CSIR – National Institute of Oceanography (NIO) गोवा ने एक प्रोजेक्ट शुरु किया है। इस प्रोजेक्ट की कुल अवधि 3 वर्ष होगी। इसमें वैज्ञानिक कार्बनडेटिंग व अन्य तकनीकों के जरिए पुल की प्राचीनता और इसके पत्थरों की फॉर्मेशन के बारे में पता लगाया जाएगा।
इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए CSIR – National Institute of Oceanography (NIO) गोवा ने एक प्रोजेक्ट शुरु किया है। इस प्रोजेक्ट की कुल अवधि 3 वर्ष होगी। इसमें वैज्ञानिक कार्बनडेटिंग व अन्य तकनीकों के जरिए पुल की प्राचीनता और इसके पत्थरों की फॉर्मेशन के बारे में पता लगाया जाएगा।
मार्च में शुरु होगा काम, मिट्टी और पत्थरों की होगी वैज्ञानिक जांच
माना जा रहा है कि प्रोजेक्ट की शुरुआत के लिए आवश्यक कार्य मार्च के अंत तक आरंभ हो जाएंगे। प्रारंभ में पुल के नीचे की फोटोज को देख कर यह देखा जाएगा कि वहां किसी तरह के समुद्री जीवों की बसावट तो नहीं है। इसके बाद मिट्टी तथा पत्थरों के नमूने लेकर प्रयोगशाला में उनकी वैज्ञानिक जांच की जाएगी।
माना जा रहा है कि प्रोजेक्ट की शुरुआत के लिए आवश्यक कार्य मार्च के अंत तक आरंभ हो जाएंगे। प्रारंभ में पुल के नीचे की फोटोज को देख कर यह देखा जाएगा कि वहां किसी तरह के समुद्री जीवों की बसावट तो नहीं है। इसके बाद मिट्टी तथा पत्थरों के नमूने लेकर प्रयोगशाला में उनकी वैज्ञानिक जांच की जाएगी।
समुद्र में खोज करने में एक्सपर्ट पुराविशेषज्ञ करेंगे मदद
NIO के डायरेक्टर के अनुसार कुछ शास्त्रों में रामसेतु के निर्माण के लिए लकड़ी के बड़े लट्ठों के प्रयोग की भी बात कही गई है। यदि ऐसा है तो वे अब तक खत्म होकर जीवाश्म में बदल चुके होंगे। उनके भी सैंपल लेकर जांच की जाएगी। इस पूरे काम के लिए ऐसे आर्कियोलॉजिस्ट की मदद ली जाएगी जो गोताखोरी में प्रवीण हो और समुद्र के अंदर खोज करने में दक्ष हो।
NIO के डायरेक्टर के अनुसार कुछ शास्त्रों में रामसेतु के निर्माण के लिए लकड़ी के बड़े लट्ठों के प्रयोग की भी बात कही गई है। यदि ऐसा है तो वे अब तक खत्म होकर जीवाश्म में बदल चुके होंगे। उनके भी सैंपल लेकर जांच की जाएगी। इस पूरे काम के लिए ऐसे आर्कियोलॉजिस्ट की मदद ली जाएगी जो गोताखोरी में प्रवीण हो और समुद्र के अंदर खोज करने में दक्ष हो।
आपको बता दें कि देश में यह पहली बार नहीं होगा जब समुद्र में अंदर जाकर खोज की जाएगी। इससे पहले भी समुद्र में डुबी हुई द्वारिका नगरी को खोजने के लिए खोज की जा चुकी है। उस समय भी आधुनिकतम तकनीकों का प्रयोग कर द्वारिका के अवशेष ढूंढे गए थे।