‘मुझे इस बात का अहसास तक नहीं था कि मेरी बच्ची को मुझसे इस तरह से छीन लिया जाएगा। घटना के ठीक बाद मेरा मुंह सूख गया था और मुझे लग रहा था कि मेरे पास आवाज नहीं है। जब मीडिया मुझसे बात करने आया तो समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूं। लेकिन अब कोई मुश्किल नहीं होती। कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।’
‘मैं इस केस को 7 साल 3 महीने से लड़ रही हूं। अपराध करने वालों के मानवाधिकार की बात की जाती है। मेरा भी तो कोई अधिकार है। निर्भया का भी मानवाधिकार है। मैं उस दिन को याद करती हूं। रविवार का दिन था। आमतौर पर बच्चों की छुट्टी थी। बेटी देहरादून से फाइनल परीक्षा देने आई थी। शाम 4 बजे यह कहकर निकली थी कि मम्मी मैं 2 तीन घंटे में आ रही हूं। काफी देर हो गई तो पिता खोजने गए। हमें रात सवा 11 बजे कॉल आई कि अस्पताल आइए। आपकी बच्ची के साथ दुर्घटना हो गई है। अस्पताल पहुंचे। डॉक्टरों ने बताया कि बच्ची का खून बंद नहीं हो रहा है। उनकी सर्जरी ओपन थी। हर दूसरे-तीसरे दिन दोबारा तिबारा ऑपरेशन हुआ। जिस दिन ऑपरेशान हुआ। डॉक्टर ने कहा 20 साल के जीवन में कभी ऐसा केस मेरे पास नहीं आया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जो 22 फुट की आंत होती है वो एक फुट भी साबूत नहीं है। 12-13 दिन गुजर गए। निर्भया चली गई…।’
विरोधी पक्ष के वकील और रिश्तेदारों ने काफी कुछ बोला… मुझे ऐसा लगता कि अपराध मैंने ही किया है। फांसी सुना दी जाती है लेकिन होतीनहीं। अब चौथी बार डेथ वारंट जारी हुआ है।
(धीरज कन्नौजिया से हुई बातचीत पर आधारित)