विविध भारत

मुकदमों वाले नेता चुनाव लड़ सकते हैं, तो अंडर ट्रायल भी जेल में कैद क्यों?

राजनीति के अपराधीकरण पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की सीधी बात

Aug 15, 2018 / 01:45 am

Navyavesh Navrahi

मुकदमों वाले नेता चुनाव लड़ सकते हैं, तो अंडर ट्रायल भी जेल में कैद क्यों?

-मनीष शर्मा
नई दिल्ली/जयपुर: भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी हाल ही में पाकिस्तान में हुए चुनाव में कॉमनवेल्थ ऑब्जर्वर समूह के सदस्य के तौर पर गए थे। वापस लौटकर उन्होंने पड़ोसी मुल्क में बैलेट पेपर पर हुए मतदान को पारदर्शी बताया, जिसकी काफी आलोचना हुई। आखिर किस तरह हुआ पाकिस्तानी चुनाव, क्या चुनाव सुधार वहां हुए और भारतीय चुनाव से यह कैसे अलग है, और उन्होंने किस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि पाकिस्तान चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष थे। सेना के साये में हुए इन चुनावों के आरोपों पर उनका क्या कहना है, इन सब मुद्दों पर कुरैशी ने पत्रिका से खुलकर बात की। देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराये जाने के सवाल पर भी कुरैशी ने बहुत बेबाकी से अपनी राय रखी।
सवाल-पाकिस्तान में हुए चुनाव को आपने पारदर्शी बताया लेकिन चुनाव पूर्व हेराफेरी, मीडिया सेंसरशिप, कई उम्मीदवारों का टिकट वापस करना, पीएमएल(एन), पीपीपी के नेताओं पर आईएसआई का दबाव, ऐन चुनाव से पहले न्यायपालिका द्वारा नवाज शरीफ और उनके सहयोगियों पर कार्रवाई जैसे कई कारण हैं, जिनसे इसकी स्वतंत्र और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं?
कुरैशी- मैं 15 सदस्यीय ‘कॉमनवेल्थ ऑब्जर्वर’ समूह का सदस्य था, जिसका प्रमुख किसी देश का पूर्व मुखिया होता है। पाकिस्तान चुनाव को लेकर मेरा निष्कर्ष उन्हीं बिंदुओं पर आधारित है, जिन पर हमने इस चुनाव को आंका और कॉमनवेल्थ सिस्टम की भी यही राय रही। मुझे इस्लामाबाद और रावलपिंडी का ही वीजा मिला था। जब मैं वहां पहुंचा तो चुनाव पूर्व माहौल में हेराफेरी (रिगिंग) की जानकारी मिली। खासतौर पर नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल (एन) के उम्मीदवारों द्वारा टिकट लौटाना और कई नेताओं का इमरान खान (पीटीआई) के साथ हाथ मिलाने की बातें पता लगीं। लेकिन मैं इसे चुनावी हेराफेरी के दायरे में नहीं रखता। राजनीतिक तोडफ़ोड़ (हॉर्स-टे्रङ्क्षडग) चुनावों से पहले कई मुल्कों में होती है। भारत में ही आयाराम-गयाराम की राजनीति होती आई है।
दूसरी बात जोर-शोर से उठाई गई कि मीडिया पर दबाव बनाया गया। मीडिया ने भी आपत्ति दर्ज कराई कि परोक्ष और अपरोक्ष दबाव डाला, लेकिन वहां के टीवी चैनलों पर खुलकर सेना की आलोचना हो रही थी। इससे मुझे तो नहीं लगा कि कोई पाबंदी मीडिया पर है। कहा गया कि मीडिया के एक तबके ने ‘सेल्फ सेंसरशिप’ लगा ली, पर इस आरोप का भी कोई मजबूत तर्क नहीं मिला। इस बात को मैंने अपने आकलन में इंगित किया है। लेकिन यह कहना कि सेना के इशारे पर न्यायपालिका ने शरीफ के खिलाफ फैसला दिया, इससे मैं कतई सहमत नहीं हूं। हां, टाइमिंग पर जरूर सवाल उठाए जा सकते हैं पर इसे साबित कैसे किया जा सकता है?
सवाल-ईयू के इलेक्शन ऑब्जर्वर मिशन का रुख कॉमनवेल्थ ऑब्जर्वर ग्रुप से काफी विरोधाभासी रहा। उनका मानना है कि यह चुनाव 2013 के चुनाव जितना ‘अच्छा’ नहीं था और सभी दलों को प्रचार में बराबरी का मौका नहीं मिला। पिछले चुनाव में उन्हें 100 दिन पहले एंट्री मिल गई थी जो इस बार 10-12 दिन पहले ही दी गई। अमरीका ने भी इसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मानने से इनकार किया है। आपका क्या जवाब है?
कुरैशी- मैं ईयू के नजरिए पर टिप्पणी नहीं करना चाहता। जो कुछ उन्होंने कहा है, वह उनका आकलन है। कॉमनवेल्थ ऑब्जर्वर ग्रुप के सभी सदस्यों ने जिन प्रशासनिक और प्रबंधकीय बिंदुओं पर विश्लेषण किया, हमारा निष्कर्ष उस पर आधारित है और उस लिहाज से मतदान पारदर्शी हुआ है। हालांकि कुछ प्रक्रियागत खामियां जरूर सामने आईं।
सवाल-इन चुनावों में सेना के हस्तक्षेप की आशंका के पीछे बड़ी वजह सैनिकों की जबरदस्त तैनाती है। इस बार 3.71 लाख सैनिक तैनात किए गए। सेना को चुनाव आयोग द्वारा ‘मैजिस्टीरीअल पावर’ देने की खूब आलोचना हुई। खुद पीटीआई के कुछ एक्टिविस्ट ने दबी जुबां में स्वीकारा कि इमरान खान को सेना का समर्थन है। आपका क्या कहना है?
कुरैशी -इसमें कोई दोराय नहीं है कि सेना की तैनाती बहुत ज्यादा थी। मैंने भी पाकिस्तानी चुनाव आयोग से पूछा कि ०3 लाख 71 हजार सैनिक क्यों? तो उनका जबाव था कि पिछले तीन महीने में 170 लोग आतंकी हमलों में मारे गए हैं। इनमें तीन तो उम्मीदवार ही थे। आतंकी माहौल को देखते हुए तैनाती बढ़ाई गई। चुनाव आयोग का कहना था कि पिछली बार 71 हजार बूथों के बाहर सैनिक तैनात थे, पर धांधली हुई। पोलिंग बूथ के भीतर ही ‘खेल’ हो गया, खासकर कराची और सिंध में। यानि सैनिकों की संख्या इस लिहाज से भी बढ़ानी जरूरी थी।
फिर हमने चुनाव आयोग से पूछा कि पोलिंग बूथ के भीतर सैनिकों की तैनाती क्यों की गई? तो उनका जवाब माकूल था कि पोलिंग स्टेशन/बूथ के भीतर पूर्व की भांति गड़बडिय़ां रोकने के लिए सैनिकों की तैनाती की गई है। और जहां तक बात मैजिस्टीरीअल शक्ति की है तो फौज को बूथ कैप्चरिंग की स्थिति में ही सीधे कार्रवाई करने तक सीमित रखा गया था। अन्य परिस्थिति में उसे कार्रवाई से पहले निर्वाचन अधिकारी को सूचित करना अनिवार्य था। अगर निर्वाचन अधिकारी एक्शन नहीं लेता है तो वरिष्ठ सैन्य अधिकारी को सूचना दी जाएगी और फिर वहां से संबंधित चुनाव आयोग के वरिष्ठ अधिकारी को जानकारी जाएगी। यानि चुनाव आयोग की नजर में पूरी प्रक्रिया थी।
यहां तक कि पाकिस्तान इलेक्शन एक्ट-2017 की धारा-194 के तहत पुलिस की जो शक्ति सेना को दी गई थी, जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा पोलिंग स्टेशन के दायरे में अपराध करने की स्थिति में, उसे बिना वॉरंट के गिरफ्तार करने का प्रावधान था, उसे भी वापस ले लिया गया। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सेना ने चुनाव अपने कब्जे में लिया हुआ था। अगर आर्मी दादागीरी करती तो बतौर ऑब्जर्वर हम ही रिपोर्ट कर देते। हमारे कॉमनवेल्थ गु्रप के चेयरमैन नाइजीरिया के पूर्व राष्ट्रपति जनरल अब्दुलसलामी अबुबकर ने पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल बाजवा से बात की तो बाजवा ने उन्हें आश्वासन दिया कि सेना बिना किसी दखल के शांतिपूर्ण चुनाव चाहती है।
हमने राजनीतिक दलों के एजेंटों से विस्तृत बात की। मैंने 70 बूथों में 200 एजेंटों से बात की कि उन्हें चुनाव में धांधली संबंधी कोई शिकायत है? कुछ हेराफेरी हो रही है? उन्होंने जवाब दिया कि सब ठीक चल रहा है। इसके अलावा वहां करीब 50 एनजीओ के एक समूह-फ्री एंड फेयर इलेक्शन नेटवर्क के 19 हजार से ज्यादा ऑब्वजर्वर 80 फीसदी पोलिंग स्टेशनों पर भेजे गए। उनसे बातचीत में भी चुनाव को स्वतंत्र होना पाया गया।
सवाल-वहां वोटिंग होते ही गणना भी शुरू हो जाती है। लेकिन कुछ पत्रकारों और विश्लेषकों ने परिणाम में देरी की शिकायत की। वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर ने कहा कि रात एक बजे तक सिर्फ 20 फीसदी वोटों की ही गणना हो पाई। ढाई दशक में ऐसा पहली बार हुआ। साथ ही पार्टियों ने रात में उनके पोलिंग एजेंट्स को बाहर निकालने और मतदाताओं को समय पर उचित फॉर्म भी न देने की शिकायत भी की।
कुरैशी- परिणाम देरी से आने की जिम्मेदार एक बड़ी तकनीकी वजह थी। दरअसल, पाकिस्तान चुनाव आयोग ने पहली बार मतगणना के लिए ब्रिटेन में बने ‘रिजल्ट ट्रांसमिशन सिस्टम’ एप्लीकेशन का उपयोग किया था। लेकिन शाम छह बजते ही इसने काम करना बंद कर दिया। इसके पीछे वजह यह सामने आई कि सभी चुनाव अधिकारियों ने जैसे ही इसे एक साथ उपयोग में लेना शुरू कर दिया, यह खराब हो गया। फिर इसके बाद पारंपरिक ढंग से मतगणना शुरू हुई, जिसमें वक्त लगा।
पोलिंग एजेंंट्स को बाहर निकालने की शिकायत का भी मैंने पता किया। दरअसल, चुनाव आयोग हरेक पार्टी के एक एजेंट को ही अंदर बने रहने की अनुमति देता है और कुछ जगह एक से ज्यादा एजेंट पोलिंग स्टेशन के अंदर न जाने की अनुमति देने के कारण विरोध कर रहे थे।
सवाल-चुनावी ऑब्जर्वर के इतर अगर बात करें तो इमरान खान को गले लगाने को लेकर अवाम का क्या रुख था?

कुरैशी-मैंने वहां सिविल सोसायटी और निचले तबकों के नागरिकों से काफी बातचीत की। उनसे बातचीत में यह निष्कर्ष सामने आया कि जिस तरह एक वक्त अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मतदाताओं ने पसंद किया, कमोबेश उसी तर्ज पर पाकिस्तानी अवाम ने इमरान को पसंद किया है। वह सारे विकल्प देख चुकी थी। लोगों ने बताया कि इमरान लंबे वक्त से सक्रिय है तो सोचा, इन्हें भी मौका देकर देखते हैं।

सवाल-आपने पाकिस्तान चुनाव भले ही पारदर्शी कहा, पर आज भी वहां बैलेट पेपर से वोटिंग होती है और हम 20 साल पहले इसे छोडक़र ईवीएम अपना चुके हैं। अब तो वीवीपैट (वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट टे्रल) पर आ चुके हैं। पर कुछ विपक्षी दल 2019 में बैलेट पेपर से ही मतदान की मांग कर रहे हैं, क्या मानते हैं आप?
कुरैशी-मैं तो बैलेट पेपर के पक्ष में कतई नहीं हूं। आज हम जो मशीनें इस्तेमाल कर रहे हैं, उसमें वल्र्ड लीडर हैं। ये परफेक्ट हैं। लोग भले अंगुलियां उठाते रहें। और वीवीपैट शुरू होने से तो शक की गुंजाइश भी खत्म हो जानी चाहिए। हमें पाकिस्तान को देखकर बैलेट पर नहीं आ जाना चाहिए।
जब एक पार्टी को इन्हीं ईवीएम के जरिए अच्छा बहुमत मिलता है तो मशीनें सही हो जाती हैं और हारने पर ईवीएम हैक होने के आरोप लगने लगते हैं। हमारी ईवीएम परफेक्ट हैं, हमें ईवीएम का बचाव करने की जरूरत नहीं है। लेकिन राजनीतिक छींटाकशी में एक खतरा मुझे यह महसूस होता है कि अभी जो लोगों का भरोसा चुनाव आयोग पर कायम है, उसे कहीं आंच न आ जाए। राजनीतिक दल कोरे आरोपों से यह बात बार-बार जनता में पहुंचाना चाहते हैं कि ईवीएम ही गड़बड़ है।
सवाल-देश में इन दिनों विधि आयोग का पैनल एक साथ चुनाव पर सभी दलों से मशविरा कर रहा है। कांग्रेस इसे संघीय ढांचे के खिलाफ बता रही है। कुछ क्षेत्रीय दल विरोध में हैं तो कुछ ने समर्थन किया है। पाकिस्तान में जैसे नेशनल और प्रांतीय असेंबली के चुनाव साथ होते हैं, क्या भारत में विधानसभा और संसदीय चुनाव एक साथ संभव हैं?
कुरैशी- पाकिस्तान में तो लगा कि समानांतर चुनाव सहजता से हो जाता है। हालांकि मतदान करते वक्त गलत मतपेटी में बैलेट पेपर डालने का भ्रम जरूर सामने आया। पर हमारी और पाकिस्तान की स्थिति में काफी फर्क है। वैसे, चुनाव आयोग के हिसाब से तो यह मॉडल अच्छा है। वोटर एक है, मशीनरी वही है, पोलिंग बूथ वही है, सुरक्षाकर्मी वही है। चुनाव आयोग को तो तीन ईवीएम एक साथ रखने हैं। फिर वह तो पांच साल में एक बार चुनाव करके फ्री। हालांकि प्रधानमंत्री सहमति बनाने की ही बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैं इस पर व्यापक बहस चाहता हूं। मैं उनसे सहमत हूं। अगर सभी दल रास्ता खोज लें तो यह अच्छा विचार है। पर मानिए, हमने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करा दिए। अब अगर 13 दिन में लोकसभा गिर जाए, जैसा अटल जी की सरकार में हुआ था, या कुछ विधानसभाओं में ऐसा हो जाए तो फिर क्या होगा? ऐसे में क्या सारी विधानसभाओं को भी भंग कर दिया जाए?
वैसे समानांतर चुनाव का जो असल प्रस्ताव था, वह कमजोर हो गया है। वास्तविक प्रस्ताव था कि नगर निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा, तीनों चुनाव लोकतंत्र में एक साथ हो। पर पंचायत चुनाव/निकाय की बात ही बंद हो गई। नीति आयोग और संसद की स्थायी समिति ने कहा कि पांच साल में एक बार समानांतर चुनाव संभव नहीं हैं तो दो बार करा लिया जाए। अगर आगामी चुनावों के मद्देनजर भी देखा जाए तो अभी हल यही दिखता है कि लोकसभा पहले भंग कर ली जाए, फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के साथ चुनाव करा लिए जाएं।
सवाल-नोटा को वैधानिकता (इलेक्टोरल वैल्यू) देनी चाहिए या नहीं? इसे लागू करते वक्त तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सदाशिवम ने कहा था कि नकारात्मक मतदान से दलों को स्वच्छ राजनीति पर जोर देना पड़ेगा। राइट टू रिकॉल भी क्या हकीकत बन सकता है?
कुरैशी- मैं जस्टिस सदाशिवम की बात से सहमत हूं। वैसे, नोटा के पीछे बड़ा मकसद बोगस वोटिंग रोकना थी। यह विकल्प आने से पहले अगर मतदाता किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहता था तो वह मतदान करने ही नहीं जाता था और उसकी जगह बोगस मतदान हो जाता था। दरअसल, पहले नकारात्मक वोटिंग के लिए कागजी कार्रवाई होती थी, उससे मतदाता का नाम उजागर हो जाता था। इससे उसे खतरा बना रहता था। इसलिए नोटा लाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने लिखा कि सभी मतदान करने जाएं और नकारात्मक वोटिंग में भी अब ‘सीक्रेसी’ रहेगी। अब सवाल है कि क्या इसे संवैधानिकता दी जा सकती है? तो मेरा मानना है कि व्यावहारिक रूप में बहुत मुश्किल है। मुश्किल भौगोलिक स्थिति है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक चुनाव कराने हैं। इसमें नक्सल इलाके भी आते हैं। जहां एक बार चुनाव कराना ही उपलब्धि जैसा है।
राइट टू रिकॉल से भी चुनाव आयोग ने इसलिए इनकार किया कि इससे देश अस्थिर हो जाएगा। हमने अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को भी इसके लिए मनाया क्योंकि मुश्किल जगहों पर ऐसा होने पर बार-बार चुनाव नहीं कराए जा सकते।
सवाल-एडीआर के ताजा विश्लेषण के हिसाब से 33 फीसदी विधायकों और सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 45 पर तो महिलाओं के खिलाफ अपराध के मुकदमे दर्ज हैं। सदनों में यह सूरत कैसे बदलेगी?
कुरैशी-इसका एक ही हल है, सख्त कानून बनाया जाए। तभी तय होगा कि कौन चुनाव लड़ सकता है और कौन नहीं। बचाव में एक तर्क दिया जाता है कि कोई भी तब तक दोषी नहीं, जब तक सजा न हो जाए। तो मेरा कहना है कि भारत में करीब 4 लाख कैदी हैं। इनमें से 2 लाख 70 हजार अंडर ट्रायल हैं। फिर इन लोगों केअधिकार क्यों छीन रखे हैं? ये भी जब तक सजा न मिले, तब तक आजाद रहें और अपना रोजगार करें।
सवाल-पाकिस्तान में नेशनल असेंबली चुनाव के लिए सभी दलों में 5 फीसदी महिला उम्मीदवार होना जरूरी है। वहीं भारत में संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक आज तक लंबित है?

कुरैशी-बड़ा दिलचस्प है कि पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। हरेक दल में महिलाओं को ०5 फीसदी टिकट देना जरूरी है। वहां पख्तूनवा जैसे आदिवासी इलाकों में औरतों को प्रोत्साहित करने लिए एक और बड़ा कदम उठाया गया। चुनाव आयोग ने प्रावधान किया कि अगर किसी भी बूथ पर कुल मतदान में महिलाओं का प्रतिशत 10 फीसदी से कम रहा तो चुनाव निरस्त हो जाएगा। और दो जगह ऐसा हुआ भी। इससे हम सीख भी सकते हैं। हालांकि हमने पंचायतों में तो 50 फीसदी तक आरक्षण दे रखा है पर संसद में 33 फीसदी आज तक लटका हुआ है। एक और खास सुधार हमें चुनाव आयोग के भीतर भी करना चाहिए। पाकिस्तान में चुनाव आयोग के पांचों सदस्य कॉलेजियम सिस्टम से चुनकर आते हैं। भारत की तरह राजनीतिक दल उन्हें नियुक्त नहीं करते। यह सुधार भी भारत में होना चाहिए।
सवाल-पिछले कुछ विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद सरकार बनाने का न्योता देने के तरीके पर राजभवन पर सवाल उठ रहे हैं। ताजा उदाहरण कर्नाटक का था, उससे पहले गोवा, मेघालय में ऐसा हुआ। कहा जाता है राज्यपाल का ‘विवेकाधिकार’ है कि वह किसे बुलाएं। क्या अब इस पर कोई सही निर्णय होना चाहिए?
कुरैशी- वैसे, सरकारिया कमीशन के नियम सामने हैं। लेकिन आजकल ऐसा हो गया है कि जो सबसे तेज दौडक़र राजभवन पहुंच जाए, वही सरकार बना ले। गोवा में जो पहले पहुंच गया, उसने सरकार बना ली।लेकिन सबसे बड़ी पार्टी को सबसे पहले बुलाया जाए, वह विफल रहे तो फिर दूसरे दल को न्योता दिया जाए। तरीका यही है लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है तो नियम बनाए जाने चाहिए। राज्यपाल का ‘विवेकाधिकार’ हटाया भी जा सकता है।

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